जय महाकाल
नमस्कार दोस्तों !!!
आपका मेरे ब्लॉग में स्वागत है, हमारे आज की चर्चा का विषय भारत के अंग्रेजों के
विरुद्ध लड़े गये प्रथम
स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहे चुके एक योद्धा के ऊपर है| अब आप सबके दिमाग में
बहुत से नाम आये होंगे, तो चलिए आपके लिए उस वीर के ऊपर लिखी गयी कुछ
पंक्तियाँ लिख देता हूँ, जिससे आप समझ जायेंगे की यह ब्लॉग किसके ऊपर है
“चमक उठी सन सतावन में वो तलवार पुरानी थी
गुमी हुई आजादी की कीमत सब ने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने
मन में ठानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वो तो
झाँसी वाली रानी थी”
सुभद्रा कुमारी
चौहान की इस कविता से आप सब तो समझ ही गए होंगे की हमारा आज का ब्लॉग वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई जिन्हें लोग झाँसी की
रानी के नाम से भी जानते हैं उनके ऊपर है| इस ब्लॉग में हम उनके जीवन संघर्ष और
उनके बलिदान इत्यादि के बारे मैं चर्चा करेंगे|
इतिहासकारों में
इनके जन्म को लेके बहुत मतभेद हैं| कुछ इतिहासकारों का मानना है की रानी लक्ष्मी
बाई का जन्म 18 नवम्बर 1828 मैं हुआ था और कुछ का मानना है की इनका जन्म 28 नवम्बर
1828 मैं हुआ था| परन्तु इनका जन्म कभी भी हुआ हो वो इनके एतिहासिक महत्व को कम
नहीं कर सकता है| अगर हम रानी लक्ष्मीबाई के जीवन का और गहरा अध्यन करें तो हमे
पता चलेगा की रानी लक्ष्मीबाई वास्तव में मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई की पुत्री
थी हीं नहीं क्योंकि कई इतिहासकारों का एसा मानना है की एक बार जब मोरोपंत तांबे काशी
(बनारस) के घाट पे पूजा कर रहे थे तब उन्हें रानी लक्ष्मीबाई मिली थी, जिनका नाम
उन्होंने मणिकर्णिका रखा था और बिठुर के पेशवा उन्हें मनु बुलाते थे| रानी लक्ष्मीबाई
के पिता काशी के उच्च न्यायलय में मुख्य
न्यायाधीश थे और बिठुर के पेशवा उनके पुराने मित्र थे| क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई के
पिता एक उच्च पद पर थे इसलिए उनकी शिक्षा आदि दूसरी कन्यों से अलग थी| उन्होंने घुड़सवारी,
तलवारबाजी आदि युद्ध कलाओं की
भी शिक्षा ली थी| रानी लक्ष्मी बाई में बचपन से ही स्वाधीनता की मशाल धड़कती थी,
क्योंकि इन्होने अंग्रेजों का अत्याचार देखा था| पर उसके विरुद्ध वो कुछ कर नहीं
पातीं थी| पर कुछ करने का मौका उन्हें जल्दी ही मिलने वाला था| आईये तो जानते हैं
की किस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी मैं तय हुआ| उसके पूर्व यह जान लेना
उचित है की झाँसी पर मराठा हुकूमत कैसे स्थापित हुई थी| पूर्व समय में झाँसी
बुंदेलखंड का हिस्सा था| जब पेशवा बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल बुंदेला की सहायता की
थी मोहम्द बंगश के विरुद्ध तब उन्होंने अपनी पुत्री मस्तानी का हाथ बाजीराव को
सोंप दिया था| उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी वसीयत के अनुसार बुंदेलखंड के तीन
हिस्से हुए थे| उसमें उत्तर का हिस्सा जिसकी सालाना आय 1 करोड़ थी उन्होंने बाजीराव के नाम कर दिया
था| इसके बाद बाजीराव ने अपनी मृत्य के पूर्व उस हिस्से की जिसकी आय 1 करोड़ थी दो और हिस्से किये जिसमें सालाना 80
लाख आये वाला हिस्सा उन्होंने मस्तानी के पुत्र शमशेर बहादुर को दिया और बचा 20
लाख वाला हिस्सा मराठा साम्राज्य को दिया| पानीपत के युद्ध के बाद शमशेर बहादुर
(युद्ध मैं शमसेर बहादुर की मृत्यु हो गयी) का हिस्सा मराठा साम्राज्य में मिल गया और इस हिस्से की रक्षा के लिए पेशवा
बाजीराव द्वित्य ने इसे नेवलेकर राजघराने को सोंप दिया| इसी राजघराने में गंगाधर राव का जन्म 1797 मैं हुआ था| रानी
लक्ष्मीबाई और महाराज गंगाधर राव की उम्र में बहुत बड़ा अंतर था| कई इतिहासकारों की मानें तो
गंगाधर राव का पूर्व समय में भी एक विवाह हो चुका था परन्तु किसी कारण वश उनकी
पहली पत्नी की मृत्यु हो गयी और उनकी माँ के आग्रह पर उनके दुसरे विवाह की तयारी
हुई| गंगाधर राव कड़हाडे ब्राह्मण थे इसलिए उनका विवाह भी इसी कड़हाडे ब्राह्मण समाज
मैं ही हो सकता था| उधर लक्ष्मी बाई भी 14 वर्ष की हो गयी थी और उनके लिए भी योग्य वर की तलाश की जा रही
थी| लक्ष्मीबाई भी कड़हाडे ब्राह्मण थी इसलिए उनका विवाह भी कड़हाडे ब्राह्मण समाज
मैं ही हो सकता था| बिठुर के पेशवा झाँसी के भी मित्र थे और मोरोपंत तांबे के भी,
दोनों ने ही अपने अपनी संतानों के लिए पुरा उत्तर छान लिया था पर कोई कड़हाडे
ब्राह्मण नहीं मिला था फिर एक दिन दोनों एक ही समय पर संजोग से बिठुर के पेशवा के
यहाँ मिले और बिठुर के पेशवा नारायराव द्वित्य ने दोनों का परिचय करवाया और दोनों
की तरफ से शादी का प्रस्ताव रखा गया और इस तरह से 14 वर्ष की
छोटी सी उम्र मैं लक्ष्मीबाई का विवाह तय हुआ| उस समय मान्यता थी की अगर किसी कन्या
का विवाह 10 से 15 वर्ष के बीच में ना हो तो उसके यहाँ जन्म लेने वाली 42 पीढ़ी नर्क में जाएँगी| इस तरह से 19 मई 1842 को लक्ष्मीबाई
का विवाह संपन हुआ| शादी के दौरान ही उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला था| शादी के
पूर्व उनका नाम मणिकर्णिका था| उस समय यह रिवाज़ था की शादी के बाद राजघराने में बहु को एक नया नाम दिया जाता था| यहाँ से प्रारंभ
होता है झाँसी की रानी यानि लक्ष्मीबाई के जीवन का दूसरा अध्याय| हम जिस समय की
बात कर रहें हैं उस समय भारत के अधिकांश भूभाग पर अंग्रेजों का शासन था| अब आप सोच
रहे होंगे की मैं यह क्या बोल रहा हूँ अंग्रेजों का तो पूरे भारत पर राज था| यह सत्य नही है, अंग्रेज यह कहते थे
क्योंकि उनका दिल्ली पर राज था| इसके
अलावा तत्कालीन राजस्थान, कर्णाटक, नेपाल और भारत के पूर्व राज्यों से उन्हें
सालों के युद्ध के पश्चात् संधि करनी पड़ी थी| परन्तु झाँसी में एसा नहीं था| 1818 मैं तीसरे अंगोल-मराठा
युद्ध में मराठों की हार
के बाद अधिकांश भारत पे अंग्रेजों का शासन था| झाँसी ने अपने आप को बचाने के लिए
अंग्रेजों से कुछ शर्तों पर संधि की थीं| पर अंग्रेज हुकूमत इस संधि से खुश नहीं
थी, वो झाँसी पे पूर्ण अधिकार चाहती थी| फिर सन 1848 मैं जनरल डलहौजी भारत के नये गवर्नर जनरल बने और उन्होंने चूक का सिधान्त नाम की नीती अपनाई जिसे
डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स भी कहते हैं और इसके अनुसार अगर कोई राजा जो बिना पुत्र के
मृत्यु को प्राप्त होता है उसका राज्य अंग्रेज शासन के पास चला जाये गा| ऐसा ही झाँसी के साथ भी
हुआ| सन 1851 मैं मात्र 4 माह की उम्र में उनके(रानी लक्ष्मीबाई) पुत्र की मृत्यु
हो गयी, परन्तु झाँसी अभी अंग्रेजों के अधिपत्य में नहीं गयी थी क्योंकि अभी
महाराज गंगाधर राव जीवीत थे| उनका एक भाई भी था जिसका नाम था शिवराव| उसको दो
जुड़वा पुत्रों की प्राप्ति हुई थी| उसने अपने भाई के राज्य को बचाने के लिए अपने
एक पुत्र को अपने बड़े भाई को देने का सोचा| इसके पीछे उसका अपना कोई भी स्वार्थ
नहीं था| मैं ऐसा इस इए लिख रहा हूँ क्योंकि 2019 मैं प्रकाशित फिल्म मणिकर्णिका
में बताया गया था की इसके पीछे उसका स्वार्थ था और रानी लक्ष्मी बाई किसी और
मंत्री के पुत्र को अपना लेती हैं| ऐसा नहीं था शिवराव एक देशभक्त थे पर उनके बारे
में इतिहास मैं कोई जानकारी नहीं मिलती है| यह सारी घटना अंग्रेजों से छुप के हुई
थी पर किसी व्यक्ति ने यह सारी बातें अंग्रेजों को बता दीन थी| पर अंग्रेजों ने
कुछ न किया वो तो किसी मौके की तलाश मैं थे| उन्हें यह मौका 17 नवम्बर 1853 मैं मिला जब एक रात अचानक ही झाँसी नरेश गंगाधर
नेवलकर की मृत्यु हो गयी और झाँसी के ऊपर अपना अधिकार सिद्ध करने के लिए अंग्रेजों
के पास अब सब रस्ते खुले थे| रात ही रात मैं दामोदर राव का राज्याभिषेक कर दिया
गया और उनके बालिग होने तक राज काज झाँसी की रानी को सोंप दिया गया| दूसरे दिन
महाराज के अंतिम संस्कार के बाद झाँसी की रानी से मिलने के लिए अंग्रेज आये और
उनसे कहा की आप झाँसी से चले जाएँ और हम जो रूपए आप को देंगे उससे अपना खर्च
चलायें| झाँसी की रानी ने अपना पक्ष भी रखा की दामोदर राव उनका ही पुत्र है पर
अंग्रेजों ने उन्हें बताया की उन्हें पता है की दामोदर राव शिव राव का पुत्र है इस
लिए उचित यह ही होगा की वो झाँसी से चले जाएँ| लक्ष्मी बाई ने इससे इंकार कर दिया
तब, अंग्रेज जनरल हुगरोज ने उन्हें युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा| इस युद्ध मे दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ने अपने तोपची
इस्माइल खान जिसे कई जगह बहादुर शेख भी कहा जाता है झाँसी की रानी की मदद के लिए
भेजा| 21 नवम्बर 1853 मैं युद्ध आरम्भ हुआ|
एक तरफ झाँसी के वीर योद्धा तो दूसरी और अंग्रेजी विशाल फ़ौज| लगातार 6 दिन तक
युद्ध चला फिर एक रात अंग्रेजों ने रात मैं ही आक्रमण कर दिया| झाँसी इस आक्रमण को
झेल न सका| किले के दरवाजें खुल गए और अंग्रेजी सेना अन्दर आ गयी तब झाँसी की रानी
और उनके बेटे दामोदर राव को महल से भगाने के लिए झलकारी बाई जो की बिलकुल झाँसी की
रानी के जैसी दिखती थी उन्होंने अंग्रेजों से युद्ध किया और वीर गति को प्राप्त
हुईं| उस समय के समय मैं शल्य चिकित्सा से राजा और रानी की रक्षा हेतु उनके एक या
दो हमशकल सैनिक तैयार किये जाते थे| रानी लक्ष्मीबाई किले से अपने घोड़े के साथ कूद
गयीं और घोड़े की सहायता से ग्वालियर से 17 किलोमीटर उस जगह पहुँची जहाँ तात्या
टोपे थे| वहां पे इनका इलाज किया गया पर उनका घोड़ा जीवित नहीं रह सका| उस समय पूरे
भारत में स्वतंत्रता का बिगुल बज रहा था और इसका श्रेय मंगल पाण्डेय को जाता है
जिन्होंने स्वंतंत्रता का युद्ध शुरू कर दिया था| सन 1853 से लेकर सन 1857 तक झाँसी की रानी ने क्या किया इसको
लेकर हर इतिहासकारों की अपनी-अपनी एक अलग मान्यता है और इस पर अभी भी चर्चा होती
रहती है की इन बीते सालों मैं झाँसी की रानी ने क्या
किया? कई इतिहास करों का मानना है की इन बीते सालों मैं झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई
ने अंग्रेजों से कई छोटे छोटे युद्ध लाडे| कई इतिहासकारों का मानना है की उस समय
एक व्यक्ति था जो की रणबाकुरा के नाम से विख्यात था| जिसने अंग्रेजों को बहुत क्षति भी पहुँचाई थी| वो दिखने
मैं एक स्त्री के जैसा था और उसकी चाल ढाल भी वेसी ही थी, तो कई लोगों ने निष्कर्ष
निकला की वो कोई और नहीं बलकी झाँसी की रानी थी, पर इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है|
उनके इस कठिन समय में ग्वालियर नरेश जयजिराव सिंधिया ने इनकी पुरी और हर प्रकार से
मदद की थी| कई लोग इनपर यह लान्छन लगाते
हैं की यह लोग अंग्रेजों से मिले थे पर यह झूठ है| इसका जिक्र मैं महादजी सिंधिया
वाले ब्लॉग मैं कर चुका हूँ| इन बीते सालों में क्या हुआ इसके ऊपर हर इतिहासकार की
अपनी एक राय है| इन बीते सालों में एक चीज यह हुई थी की झाँसी की रानी ने ग्वालियर
के सिंधिया की सहायता से अपनी सेना बना ली थी| पर उधर अंग्रेजों ने भी 1857 की
क्रांति को विफल कर दिया था| इधर झाँसी की रानी अब अकेली हो चुकीं थी| अब उन्होंने
1858 को अंग्रेजों से निर्णायक युद्ध करने की ठानी और 18 जून 1858 मैं अंग्रेजों
और मराठा सैनिकों के बीच घमासान युद्ध हुआ| युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई बहुत घायल
हो गयीं और युद्ध छेत्र से लगभग 17 किलोमीटर दूर ग्वालियर के पास एक झोपड़ी मैं
अपने प्राण त्याग दिए और एक पंडित से उस झोपडी मैं आग लग्वा दी| इस तरह से अंग्रेज
उन्हें जीवित अथवा मृत नहीं पकड़ पाए| और
भारत का नाम इस वीरांगना ने सदा के लिए अमर कर दिया| मैं नमन कर ता हूँ इसी वीर
स्त्री को जिसने इतिहास में पुरषों के बीच अपनी जगह बनायीं|
मेरा आप सभी से
एक ही निवेदन है इस ब्लॉग को शेयर करें ताकि और लोग झाँसी की रानी के बारे मैं जान
सकें| अगर आप की कोई राय है तो वो आप हमें कमेंट कर सकतें है या फिर भेज सकते हैं paramkumar1540@gmail.com पर या फिर हमारे
व्हात्साप नंबर 7999846814 पर|
ऊपर दी गयी समस्त
जानकारी वृन्दावन लाल वर्मा तथा प्रतिभा रानडे की पुस्तकों से मुख्य तौर पे ली गयी
है| इस के अलावा ऊपर दी जानकारी को INSCRIBING THE RANI OF JHANSI IN COLONIAL “MUTINITY”
FICTION से भी लिया गया है|
17/05/2020
परम कुमार
कृष्णा पब्लिक स्कूल
रायपुर (छ.ग.)
ऊपर दिया गया चित्र इस लिंक से लिया गया है-