Friday 24 April 2020


जय महाकाल

नमस्कार दोस्तों|
आप का मेरे ब्लॉग में एक बार फिर से स्वागत है| आज हमारे चर्चा का विषय शुरू करने से पहले मै आप को एक महत्वपूर्ण बात बताना चाहता हूँ| परन्तु सके पहले मै आपको ये बताना चाहूँगा कि आज के ब्लॉग के विषय का सुझाव मेरी चाची श्रीमती शिवांगी श्रीवास्तव द्वारा दिया गया है| आप भी अपने सुझाव मेरे ब्लॉग के कमेंट बॉक्स मे या मेरे ईमेल paramkumar1540@gamil.com पर या मेरे व्हाटसएप नंबर 7999846814 पर दे सकते हैं|
आइये अब आज का ब्लॉग शुरू करते हैं|
आप सब ने अशोक स्तम्भ के बारे में तो सुना ही होगा, जो उत्तर प्रदेश के सारनाथ संग्राहलय में रखा हुआ है| उस स्तम्भ में चार शेर बने हुए हैं, जिन्हे धर्म का प्रतीक भी माना जाता है| हमारे संविधान में हर एक शेर का अपना अपना महत्व बताया गया हैं| इस संग्रहालय मे रखे सम्राट अशोक के शिलालेख क्रमांक 13 पर यह लिखा है की उन चारों में से एक ही शेर धर्म का प्रतीक है और उसी के नाम पर उस स्तम्भ का नाम है| बाकि तीन शेर उन तीन राज्यों और राजवंशों के प्रतीक हैं जिनको अशोक कभी भी युद्ध मे हरा नहीं पाये और वो तीन राजवंश थे चेरा, पंड्या और चोला|

इसलिए आज हमारे चर्चा का विषय उन तीन राजाओं मे से एक चोल वंश के ऊपर है| तो आइये भगवान महाकाल का नाम लेक हम आज का ब्लॉग शुरू करते हैं|
अगर हम प्राचीन भारत के इतिहास का गहरा अध्यन करें तो हमे पता चलेगा की चोल वंश का का असली नाम चोड़ वंश है, और इस राजवंश के वंशजों का उल्लेख रामायण में, महाभारत मे (चेदी प्रदेश के राजा शिशुपाल के रूप मे), मध्य कालीन भारतीय इतिहास के 100 ई. मे  मिलता है| इस लेख मे मै आपको मुख्य रूप से मध्य कालीन भारतीय इतिहास मे इस राजवंश के बारे में बताउंगा जो लगभग 9वीं सदी से शुरू होकर 13वीं सदी के बीच का है और इस काल मे चोल वंश अपनी ऊँचाइयों में रहा|

     चोल राजवंश का पूरा विवरण हमे संगम नामक एक ग्रन्थ में मिलता है, जिसे तोल्काप्पियर ने लिखा था| इस ग्रन्थ में चेरा, चौल्क्य, पल्लव और पंड्या राजवंशों की भी समस्त जानकारी है| इस ग्रन्थ के अनुसार सन 848 ई. में विजयालय चोला ने पल्लव को हरा क कावेरी नदी के पास चोल राजवंश की स्थापना की| राजा विजयालय चोल का कावेरी के निकट अपना राज्य बसाने के बहुत से कारण थे| उन कारणो मे से एक कारण यह था कि (यह घटना त्रेता युग की है) आदिकाल में अगस्त्य ऋषि के दो शिष्य थे करिकला चोला और कोसन्गंनन चोला| इन दोनों के ही आग्रह पर अगस्त्य ऋषि ने  ब्रम्हाजी की तपस्या की थी और उनसे उनकी पुत्री कावेरी को धरती पर ले जाने की मांग की| तब कावेरी देवी ने उन्हें यह वरदान दिया की जो पहले दो राजकुमार उनकी नदी का जल ग्रहण करेंगे वो इतिहास में अमर हो जायेंगे (इस घटना का वर्णन बाल्मीकी रामायण मे भी मिलता है) और इस प्रकार अगस्त्य ऋषि के शिष्यों करिकला चोला और कोसन्गंनन चोला ने कावेरी नदी का जल ग्रहण किया और अपना राज्य महाराज रघु (श्री राम के परदादा) के साथ मिलकर उत्तर पश्चिम में कैकेय देश (रशिया) तक और उत्तर पूर्व में किन प्रदेश, क्सिन प्रदेश, जिन प्रदेश के साथ सुई, तंग (य सब आज के चीन को बनाते हैं) अदि देशों को जीत लिया था (यह थी रामायण कालीन त्रेता युग की घटना जिसे इस राजवंश की नींव पड़ी) | संगम ग्रन्थ में इसकी पूरी जानकारी है| यह एक महत्वपूर्ण कारण था जिनकी वजह से मध्यकाल के भारतीय इतिहास मे जब यह राजवंश फिर से भारत वर्ष में स्थापित हो रहा था तो राजा विजयालय चोला ने एक बार फिर से चोल वंश को कावेरी के किनारे बसाने का निर्णय लिया था और इस तरह से एक बार फिर पुरे भारत में चोल वंश का बिगुल बज चूका था| महाराज श्री विजयालय चोला ने अपने सबसे बड़े शत्रु पल्लवों से थंजावुर (वर्तमान मे तमिलनाडु का एक शहर) जीत लिया था और वहां प अपने इष्ट देव महाकाल का भ्रिदेश्वर नाम का मंदिर बनवाया और अपने अंत समय में उसी मंदिर में अपने प्राण त्याग दिए|
आएये अब हम इस चोल वंश के अन्य प्रतापी राजाओं के बारे में जाने|
  

आदित्य प्रथम- यह विजयालय चोला की ही तरह एक प्रतापी राजा थे, जिन्होंने पंड्या और पल्लव राजाओं की सेना को एक साथ हरा दिया और पूरा पल्लव राज्य अपने अधिकार में ले लिया| वीं सदी के अंत तक पंड्या राज्य को भी उन्होने काफी कमजोर कर दिया था और इन्होने उनकी राजधानी तोंडामंला को भी जीत लिया था| उनकी वीरता से प्रभावित होक राष्ट्रकुता राजा कृष्णराज ने अपनी बेटी की शादी उनसे कारवाई थी| इन्होने 907 ई. में निशुम्भासुदिनी माता के मंदिर में समाधी ग्रहण की और अपने राज्य काल में कई शिव मंदिर बनवाये थ|

प्रन्ताक्का- इन्होने 907 ई. में अपने पिता आदित्य प्रथम के बाद राज्यभार ग्रहण किया और यह एक महत्वाकांक्षी राजा साबित हुए थे, जिन्होंने अपना पुरा जीवन युद्धों में ही बीताया| इनने पंड्या राजा राजसिम्हा से मदुराई को जीत लिया और मदुरैकोंदा की उपाधि ली जिसका मतलब होता है मदुराई को जितने वाला| पर 949 ई. में कृष्णदेवराज से तोक्काल्म युद्ध में ये राजीत हो गये और तोंमंद्लम गवा दिया| बाद मे इन्होने विष पीकर आत्महत्या करने की भी कोशिश की पर कहते हैं स्वयं महाकाल ने इनके प्राणों की रक्षा की और इनको अध्यात्म के मार्ग पर चलने की आज्ञा दी जिसके पश्चात वो अपने पुत्र प्रन्ताक्काराज को राजा बना क हिमालय पर चले गये|

प्रन्ताक्काराज- इन्होने राष्ट्रकुता को तोंमंद्लम के युद्ध में हरा क सौराष्ट्र के रुई के व्यापार पर अपना अधिकार स्थापित किया और कई मंदिर बनवाये थे| इनके समय मे ही कई दक्षिण भारतीय भाषाओं का विस्तार भारत के दूसरे प्रदेशों मे हुआ|
       
Rajaraja Chola I: Conqueror, temple builder and one of the ...राजराजा चोला प्रथम- अपने पिता प्रन्ताक्काराज के बाद राजराजा चोला प्रथम ने चोल वंश का राज्य ग्रहण किया| इन्होने 985 ई से 1014 ई तक राज्य किया और इनके समय को चोल वंशा का पहला स्वर्ण युग कहते हैं| इन्होने अपने पूर्वज इल्लन (करिकला चोला के पिता) के रास्ते  पर चलते हुए श्रीलंका को जीता और वेगी के चालुक्य राजाओं को भी हराया और राजराजेश्वर मंदिर भी बनवाया| कहा जाता है कि इनके समय चोल राजवंश एक सप्ताह में लगभग 4 करोड़ का व्यापार चीन के साथ करता था| इसकी जानकारी हमें चीनी यात्री क्सुंज़ंग की किताब कुली-या के राज्य में मिलती हैं|

राजेंद्र चोला- यह भी अपने पिता राजराजा प्रथम की ही तरह एक वीर राजा थे |इन्होने गन्गैकोदा की उपाधि धारण की थी जिसका अर्थ होता हे गंगा को जीतने वाला| इन्होने 1034 ई. के लगभग भारत में पहली बार भारतीय विदेश सेवा की शुरुआत की थी| वैसे इस तिथि को लेक थोडा मतभेद हैं| इन्होने अपने राजदूत को चीन में भेजा था और वहां प इनके राजदूत अरिश्त्देव ने कई भारतीय भाषाओँ के विद्यालयों की स्थापना वहाँ कारवायी| इन्होने अपने राज्य की सीमा भारत के उत्तर में बिहार के राजा महिपाल को हरा के बिहार तक ही की थी| परंतु भारत के बाहर मालदीव, अंदमान और निकोबार द्वीप समूह, थाईलैंड, कम्बोडिया, सिंगापुर के साथ बर्मा (म्यामार) को भी जीत लिया था| सिंगापूर में अर्जुन (वीर पांडव) के पुत्र नागार्जुन का मंदिर भी बनवया था|  इन्होने गंगा नदी से लाखों लीटर पानी सोने के घड़ों में भरवा कर अपने साथ लेक अपने राज्य में लाये और सबसे बड़ी इन्सान द्वारा निर्मित नदी बनवाई और उसका नाम चोला गंगा रखा| यह नदी लगभग 16 मील लम्बी और 3 मील चौड़ी थी| इसके बाद भी जो पानी बच गया उसे इन्होने भ्रिदेस्वर मंदिर के जल कुं में डलवा दिया| इनके समय को चोला राजवंश का दूसरा स्वर्ण युग कहते हैं| राजेन्द्र चोला ने 1012 ई. से 1044 ई. तक राज्य किया|

वीर राजेंद्र चोला- इन्होने 1064 ई से 1070 ई. तक ही राज्य किया| इनके पहले इनके बड़े भाई राजेंद्र द्वीतीय ने 20 साल (राजेन्द्र चोला प्रथम के बाद) राज्य किया था| पर इनके समय कोई महतवपूर्ण घटना नहीं हुई| इनके समय चालुक्यों ने वेंगी प्रदेश इनसे छिन लिया गया और सोमेश्वर द्वीतीय ने चालुक्यों के नये राजा के रूप में राज्य ग्रहण किया था|से मैत्री सम्बन्ध बनाने के लिए इन्होने अपनी पुत्री सुलेखा का विवाह सोमेश्स्वर के पुत्र विक्रमादित्य से कर दिया था|

परंतु इसके पश्चात और समय के साथ चोल वंश धीरे धीरे कमजोर होने लगा और बाद में इस राजवंश के अंतिम राजा हुए विक्रम चोला जिन्होंने 1120 ई. से 1135 ई. तक राज्य किया और अपने वंश की महान कीर्ति को धूमिल होने से बचाया| पर जो होना होता है वो हो ही जाता है और इस प्रकार 1135 ई. में चोल सेनाओं ने पंड्या वंश की एक विशाल सेना जिसमे होस्ल्या, चौलुक्य, पल्व राजाओं की सेना भी शामिल थी, से पराजित हो गए और पंड्या राजा मरावार्मन कुअसेकारा पंड्या प्रथम ने चोला राज्य को पंड्या राज्य में मिला लिया और इस तरह से सदा के लिए दक्षिण भारत के सदियों पुराने राजवंश की समाप्ति हो गयी और वो इतिहास के अंधेरे पन्नों में खो गया|

24\04\2020
                                                                                                          परम कुमार
                                                     कृष्ण पब्लिक स्कूल
                                                     रायपुर(छ॰ग॰) 
ऊपर दी गयी तस्वीरें इस लिंक से ली गयी है-
5. https://www.google.com/imgres?imgurl=https%3A%2F%2Ftime.graphics%2FuploadedFiles%2F500%2Fb2%2Fd7%2Fb2d7e746d61fdbf860b7f9f5cb00ac58.jpg&imgrefurl=https%3A%2F%2Ftime.graphics%2Fevent%2F2434400&tbnid=clZrhDSZbPJAuM&vet=12ahUKEwjF8tff84DpAhWTA7cAHY1_Dr0QMygIegUIARDxAQ..i&docid=OzoNVELaY74WCM&w=500&h=500&q=rajendra%20chola%20images&ved=2ahUKEwjF8tff84DpAhWTA7cAHY1_Dr0QMygIegUIARDxAQ






Sunday 19 April 2020


जय महाकाल
नमस्कार दोस्तों !!
आज का हमारा ब्लॉग भारत के उस वीर के ऊपर है जिसने भारत का नाम इतिहास मे सदा के लिए अमर कर दिया पर आज उसी के देशवासियों ने उसे भुला दिया है| में बात कर रहा हूँ महान कुषाण वंश के प्रमुख सम्राट कनिष्क प्रथम की, जिन्हें कनिष्क कदासिस भी कहते हैं| यह वही कनिष्क हैं जिनके नाम पर कश्मीर में कनिष्कपुर है| इन्होने ही भारत का पहला सूर्य मंदिर बनवाया था और सालों से ग्वालियर में बंद पड़े शिव पुत्र कार्तिकेय भगवान की पूजा आरंभ कारवाई थी| आइये ऐसे महान राजा के बारे मे थोडा और विस्तार से चर्चा करें |

प्रारंभिक जीवन
कुछ इतिहासकारों की माने तो राजा कनिष्क यु-जी जाती के थे जो की चीन मे निवास करते थे | पर हूणों के आक्रमण के समय यह लोग गंधार आ गए और वहीं अपना राज्य स्थापित किया परन्तु इस प्ररण की कोई पुष्टि नहीं करता|
कई लोगो का मानना है की राजा कनिष्क कुश्मुन्दा जाती के थे जिसके लोग  भगवान शिव के उपासक होते थे और 25 ई. में इस वंश मे एक कुषाण नाम के एक महान राजा हुए और यह वंश कुषाण वंश कहलाया| इसी वंश में राजा विम कदाफिसस के यहँ 40 ई. मे बालक कनिष्क का जन्म हुआ था| यह भी कहा जाता है कि इनमे सीखने समने की क्षमता अन्य बालकों से कई गुना अधिक थी| इतिहास  भी इन्हें राज्य की सीमा विस्तार, राजनिती की गहरी समझ और अध्यात्मिकता के प्रचार प्रसार मे उल्लेखनीय योगदान के लिए जाना जाता है| कई और इतिहासकारों की माने तो वो इन्हें पारसी और बौद्ध राजा भी बुलाते हैं| हमे इनके आरंभिक जीवन की अधिक जानकारी नहीं मिलती| इनके शिक्षा के विषय मे भी इतिहासकारों मेहुत मतभेद हैं|
आईये अब हम इनके युद्ध जीवन के बारे जानते हैं|
युद्ध जीवन
राजा कनिष्क का राज्य वर्तमान भारत के बिहार और उड़ीसा तक फ़ैला था| वर्तमान भारत की सीमा के अनुसार उनका राज्य ज्यादा भारत  वर्ष के बाहर काफी विस्तृत था | जैसे भारत के बाहर उत्तर मे चीन के वुहान प्रांत तक, पश्चिम मे यूनान, ईरान, इराक, तजाकिस्तान के अलावा लगभग मध्य एशिया के देशों तक इस वीर भारतीय का साम्राजय था| इन देशों को जीतने के लिए सम्राट कनिष्क ने जो युद्ध लड़े उनमे से चीन का और यूनान के युद्ध का महत्व अधिक है|
चीन के युद्ध का वर्णन
चीन मे जिस समय हूणों का राज्य था जो अपने आप को महान और अत्याचारी मंगोल सम्राट चंगे खान के वंशज बताते थे| अपने अहंकार के कारण इन हूणों ने कई बौद्ध प्राचीरों (शिलालेख) का नुकसान किया था| तब बौद्ध समुदाय मदद लेने के लिए गंधार नरेश कनिष्क की सेवा मे गए और कनिष्क ने भी इनकी मदद का वचन दिया और कहा कि वो क्षत्रिय जो किसी धर्म की रक्षा न कर सके उसे क्षत्रिय कहलाने का अधिकार नहीं है| महाराज कनिष्क ने अपने साथ 90000 की सेना लेकर हूण साम्राज्य से लोहा लेने निकाल पड़े| चीन में युद्ध के पूर्व उन्होंने वहां के राजा को शांति प्रस्ताव भी भिजवाया पर वहां के राजा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और कहा कि एक अनपढ़ देश के राजा की मृत्य आज हमारे ही हाथ से होगी, वैसे तो एक मामूली राजा से युद्ध करना हम हूणों को शोभा नहीं देता पर कई सदियाँ बीत गयीं हम हूणों का किसी वीर से सामना नहीं हुआ इसलिए हमें यह युद्ध मंजूर है| परन्तु ठीक इसका उल्टा हुआ| राजा कनिष्क ने भरतीय युद्धनीति का अनुसरण करते हुए गरुण व्यूह की रचना की और हूणों की सेना इसका मुकाबला नहीं कार पायी और उनकी हार हो गयी| इसके बाद इन्होने वहां पर वापस खंडित बौद्ध  प्रचीरों का फिर से निर्माण करवाया| जिससे बौद्ध आचर्यों ने खुश होकर उन्हें दिग्विजय होने का वरदान दिया|
इस घटना के पश्चात् राजा कनिष्क की कीर्ति सभी तरफ फ़ैल गयी और लोग उन्हें धर्म रक्षक राजा के रूप में जानने लगे|
लोग, देश, विदेश अपने धर्मं, समाज, राज्य आदि की रक्षा हेतु उनके पास आते थे| इसी दृश्य को देखकर उनके दरबार के मंत्री ने जो की एक ब्रह्मण था यह सलाह दी की हे वीर पुरषों में श्रेष्ठ इस युग के पुरषोत्तम जिस प्रकार भगवन राम ने राजसूय यज्ञ किया था उसी प्रकार आप भी यह यज्ञ करें और अपने महान वंश कीर्ति को और बढ़ाएँ| इस प्रकार से शुरू हुई महाराज कनिष्क की महान विजय यात्रा| इस विजय यात्रा में उन्होंने ने सबसे पहले गंधार के आस पास के राज्यों को अपने आधीन किया जो राज्य संधि से सम्मलित हुए उन्हें संधि से अपने राज्य का हिस्सा बनाया या फिर युद्ध मे पराजीत कर अपने राज्य मे मिला लिया|
राजा कनिष्क के मुख्य राज्य जिन पर उन्होंने ने विजय पाई वो थे
1.     मनुष्यपुर (आज का मुल्तान)
2.     कुषा नगरी (आज का कंधार)
3.     कश्मीर
4.     पाटलिपुत्र (पटना) और सम्पूर्ण बिहार (उस समय का अंग देश)
5.     काम्पिल्य (आज का हिमाचल प्रदेश)
6.     मथुरा
7.     मालवा (मध्य प्रदेश)
8.     उड़ीसा 
9.     सौराष्ट्र (गुजरात)
दक्षिण में इस समय सातवाहन राज्यों का राज था जिनसे उन्होंने संधि की इसी प्रकार उस समय के राजपूताने (राजस्थान) पर मेवा के गुहिलों का राज्य था जिनके राजा जगनाथ हरिश्लोमा सिंह थे उनसे से उन्होंने संधि की|
भारत में महाराज कनिष्क का राज्य ज्यादा बड़ा नहीं था| इसके बारे में मैने पर भी जिक्र किया है|
तो आईये आब हम तोडा और विस्तार से जाने की वो कौन से दुसरे देश हैं जिन पर महाराज कनिष्क का शाशन था|
1.     तजाकिस्तान
2.     उज्बकिस्तान
3.     मंगोल
4.     चीन(वुहान तक)
5.     ईरान
6.     इराक
7.     तुर्क्री
8.     यूनान (ग्रीस)
आप सोच रहे होंगे की में यह कैसे कह सकता हूँ कि इन सब देशों पर महाराज कनिष्क का राज्य था तो चलिए आप को इन बातों का प्रमाण भी  देता हूँ|
प्रमाण 1- तजाकिस्तान और उज्बकिस्तान के लिए महाराज कनिष्क ने एक ही प्रकार के सिक्के बनवाये थे जिन पर एक तरफ यह लिखा था की यह सिक्के कुषाण वंशियों के हैं और कौन से राज्य के हैं| इन सिक्कों के  दूसरी  र उनका चित्र था| ऐसे बहुत से सिक्के इन देशों के पुरातत्व विभाग को मिले हैं|  इनमे से कुछ जो की मुल्तान के एक संग्रहालय में थे जिसे तालिबान ने नष्ट कर  दिया|
प्रमाण 2- चीन और मंगोल के बहुत से ग्रंथों में यह लिखा मिलता हे की उन पर किसी कुषाण वंशी राजा का राज्य था और सातवी सदी के बौद्ध आचार्य हु-यां ने भी अपनी पुस्तक में इस बात का जिक्र किया है|
प्रमाण 3- ईरान, इराक और ग्रीस के संग्रहालयों में आज भी महाराज कनिष्क के समय के सिक्के रखे हैं|
तो इन तीनो प्रमाणों से यह सिद्ध होता हे की महाराज कनिष्क का राज्य ऊपर दिए हुआ सभी देशों पर था|
आईये अब हम इनके अध्यत्मिक जीवन पर एक दृष्टि डालें|
लोगो की माने तो महाराज कनिष्क एक विद्वान और धार्मिक राजा थे| इन्होने पाकिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी के मंदिर को एक दिव्य रूप दिया और सुंदर परकोटों से रक्षित विशाल मंदिर के प्रांग का निर्माण करवाया था|
इन्होने ने ही ईरान और इराक जैसे गैर हिन्दू देश में भगवान सूर्य नारायण की उपासना शुरू करवायी थी और आज भी वहां के लोग भगवान सूर्य नारायण की पूजा तो करते हैं पर वे सूर्य भगवान को कोई दूसरे भगवान का नाम देकर बुलाते हैं और वो नाम भी कनिष्क ने ही उन लोगों को सुझाया था| परन्तु आज भी उस नाम को लेक बहुत मतभेद हैं इसलिए मै उस नाम को यहाँ नहीं लिख रहा हूँ परन्तु यह सच है कि वो लोग आज भी गवान सूर्य की पूजा करते हैं| जिनकी पूजा करने की सलाह महाराज कनिष्क ने उन लोगों को दी थी और उन लोगों ने संस्कृत के मंत्रो को अपनी भाषा मे भी लिख लिया|
इसके अलावा इन्होने हर धर्म को अपनाया और जिस जिस देश में इनका राज्य था वहां उस देश के धर्म के अनुसार सिक्के चलाये|
इसके अलावा इन्होने कश्मीर में एक बौद्ध सभा भी आयोजित करवाई थी जिसके बाद से बौद्ध र्म को दो मार्गों महायान और हीनयान में विभाजित हो गया|
तो दोस्तों यह थी कथा भारत के महान और एक तेजस्वी महाराज कनिष्क कि|
इनकी मृत्यु के बारे में बहुत से मतभेद हैं पर लोगों के अनुसार इन्होने सन 140 ई. से 150 ई. के मध्य में सन्यास ले लिया था |
हमे ऐसे महान राजा जिसने भारत वर्ष को मध्य एशिया तक पहुंचा दिया तथा एकमात्र राजा जिसने चीन को पराजीत कर उसके बड़े भूखंड को भारत वर्ष मे मिला लिया था| परंतु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से उनके बारे में हम भारतीयों को कुछ नहीं बताया जाता है| इस लिए मेरी आप से विनती है की आप लोग मेरे इस ब्लॉग को जयादा से जयादा शेयर करे|


  
(19.4.2020)
                                              परम कुमार
                                         कृष्णा पब्लिक स्कूल
                                             रायपुर(छ.ग.)
ऊपर दी गयी समस्त जानकारी इन वेबसाइट से ली गयी है-  
  1.  ललनतोप भारत
  2.  अद्भुत भारत
  3.  भारत डिस्कवरी
  4.  जीवनी
  5.  वेबदुनिया
  6.  समयबोध


ऊपर दी गयी फोटो इस लिंक से ली गयी है-
https://hrgurjar1516.blogspot.com/2017/12/blog-post_18.html

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