Thursday 17 May 2018


नमस्कार दोस्तों आप का मेरे इस ब्लॉग में स्वागतहैं| आज हमारे चर्चा का विषय ना ही किसी योद्धा पर है ना हीं किसी युद्ध पर| अब आप सोच रहे होंगे तो फिर किस पर है? मित्रों आज हमारी चर्चा का विषय युद्ध में इस्तमाल होने वाली रणनीतियों यानि व्यूह पर है| आप सब ने महाभारत तो देखी ही होगा | उसमें  युद्ध के 13 वे दिन कौरवों  के सेनापति आचार्य द्रोणाचार्य ने पांडवों के विरुद्ध एक व्यूह की रचना की थी| जिसे हम चक्रव्यूह के नाम से जानते हैं | इसमें अभिमन्यु ने प्रवेश तो किया था पर उसको  लौटने का मार्ग नहीं पता  था, इसलिए वो मारा गया| हममें से अधिकतर लोग यही मान के चलते हैं| पर क्या आप यह जानते हैं की इस व्यूह में उसकी मृत्यु का एक और कारण था? नहीं ना, तो आज हम इस पर, कितने प्रकार के व्यूह होतें हैं, उनको बनाने के लिए कितने सैनिक लगते हैं और वो कैसे नष्ट किये जा सकते हैं ? हम आज इन सब बातों पर चर्चा करेंगे| तो आइये शुरू करते हैं|
व्यूह 13 प्रकार के होते हैं
शकटव्यूह, गर्भव्यूह, सूचिव्यूह, अर्ध्चान्द्रव्यूह, सर्वोतोभाद्रव्यूह, मक्रव्यूह, सर्पव्यूह, मंद्लाव्यूह, शेयांव्यूह, त्रिशुल्व्हियु, सत्रह्चाक्र्चाक्रव्यूह, पद्मव्यूह और कश्यप्व्ह्यु |

इन सब में से सब से खतरनाक पांच व्यूह हैं- अर्ध्चान्द्रव्यूह, सर्वोतोभाद्रव्यूह, सत्रह्चाक्र्चाक्रव्यूह, पद्मव्यूह और कश्यप्व्ह्यु| इन सब व्यूह को बनाने के लिए कम से कम 6 अक्षौहिणी सेना की जरुरत होती हैं| पर 17 चक्र च्क्रव्यूह कम सेना के साथ भी बनाया जा सकता हे| बाकी के बचे व्यूह को बनाने के लिए कम से कम 27000 सेना की जरुरत  होती हे| एक अक्षौहिणी सेना में 21000हांथी, 21000 रथ, 65000 घुड़सवार और 100000 पैदल सिपाही होते थे| माना जाता है की महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सेना मारी गयी थी| मतलब महाभारत के युद्ध में 37 लाख 26 हजार सैनिक मारे गए थे| तो आईये जानते हैं की इन व्यूह की रचना केसे होती थी|

1-      शकटव्यूह- यह व्यूह चौकोर डिब्बे जेसा होता है| इस में पांच पड़ाव होते हैं| सबसे पहले 20000 पैदल सैनिकों की एक टुकड़ी रहती है | उसके बाद 5000 रथों की एक टुकड़ी| इस व्यूह के बीचों बीच राजा अपने मुख्यमंत्री और सेनापति चतुरंग्नी सेना (चतुरंग्नी सेना चार प्रकार की सेना होती है जिसमें पैदल सैनिक, घुड़सवार सैनिक, हाथी और रथ पर सवार सैनिक) के साथ वहां रहते थे| इसके बाद 1000 हांथी और 2000 पैदल सैनिकों की एक टुकड़ी वहां रहती थी | इस व्यूह के आखरी पड़ाव में 2100 घोड़ों की एक टुकड़ी रहती थी| इस व्यूह को बनाने के लिए कुल 30100 सैनिकों  की जरुरत पड़ती थी| इस व्यूह को तोड़ने के लिए इसके उपर अगर एक साथ आक्रमण किया जाये तो यह व्यूह टूट सकता| इसे तोड़ने का बस एक यही तरीका है|

2-      गर्भव्यूह- यह व्यूह गोल आकार का होता है जेसे की किसी गर्भवती स्त्री का पेट हो| इस व्यूह में होती तो 6 पंक्तियाँ थी पर वो 6 पंक्तियाँ 3 हिससों में बंटी रहती थी | सब से पहली पंक्ति में 6000 पैदल और 4000 घुडसवार सैनिक रहते थे| दूसरी पंक्ति में 10000 रथ होते थे| तीसरी पंक्ति में चतुरंग्नी सेना रहती थी| तीसरी पंक्ति के आखरी हिस्से में राजा और उसके विश्वासपात्र सैनिक रहते थे| चौथी पंक्ति में 10000 हांथी रहते थे| पांचवी पंक्ति में  5000 घुड़सवार और 5000 हांथी रहते थे| आखरी पंक्ति में 10000 पैदल सिपाही होते थे| इस व्यूह को तोड़ाने के लिए सूचिव्यूह की रचना करनी पडती थी | अगर सूचिव्यूह की मदद से गर्भ व्यूह की तीसरी पंक्ति पर वार किया जाये तो इसे तोड़ा जा सकता हे| गर्भ व्यूह को बनाने के लिए 70000 सैनिकों  की जरुरत परती थी|

3-      सूचिव्यूह- यह व्यूह किसी लम्बे नुकीले भाले की तरह होता था और इसमें केवल एक पंक्ति होती थी जो पूरी एक अक्षौहिणी सेना का बना होता था| राजा इस व्यूह के ठीक सामने होता था पर उसकी हिफाज़त सेना के सबसे खूंखार लड़ाके करते थे| आप सोच रहे होंगे की इस व्यूह को तोड़ना सबसे असान होगा क्योंकि राजा तो इस व्यूह के सामने ही रहता हैं| उसे मार ने से ही व्यूह टूट जायेगा परन्तु ऐसा नहीं हैं क्योंकि राजा जिस रथ में बेठाता था उसकी रक्षा सेना के सबसे ताकतवर योद्धा करते थे| इसे तोड़ने का बस एक ही तरीका था कि अगर घुड़सवार एक साथ इसके दायें और बाएं तरफ हमला करें तो यह व्यूह टूट जायेगा|   
   4-  अर्धचंद्रव्यूह-यह व्यूह सब से जटिल व्यूहयों में से एक हे| इस को बनाने के लिए 6 अक्षौहिणी सेना की जरुरत पडती है| इसमें तीन पंक्तियाँ होती थी जो 1-1 अक्षौहिणी सेना से बनी रहती थी | बाकी की बची 3 अक्षौहिणी सेना इसके पीछे रहती थी| जेसे ही कोई सेना या कोई और व्यूह इस अर्धचन्द्रव्यूह की तरफ बढ़ता था तब अर्धचन्द्रव्यूह के पीछे की सेना सामने आके जो व्यूह या सेना अर्धचन्द्रव्यूह के अन्दर प्रवेश करती थी उसे घेर लेती थी| और अर्धच्न्द्रव्यूह पूर्णचंद्रव्यूह बन जाता था और अन्दर फँसी सेना को मार देता था| इस व्यूह को तोड़ने का बस एक ही तरीका था और वो यह की इसमें सीधे ना घुस के किसी और तरफ से हमला किया जाये तभी इस व्यूह को तोडा जा सकता था| 

5-   सर्वतोभद्रव्यूह- यह भी सब से जटिल व्यूहओं में से एक हे| यह व्यूह आज तक कोई नहीं बना पाया था क्योंकि इसे बनाने के लिए 27 अक्षौहिणी सेना की जरुरत पड़ती थी| मतलब इस व्यूह को बनाने के लिए कुल 55 लाख 89 हजार सिपाहिओं की जरुरत थी| क्योंकि यह व्यूह कभी बनाया नहीं गया तो इसे तोडा भी नहीं जा सकता था| सर्वतोभद्र का मतलब होता है नक्षत्रों को देखने का एक बहुत अलग तरीका | जैसा की हम सब जानते हें की 27 नक्षत्र होते हैं| इस व्यूह में भी 27 हिस्से होते थे जो एक साथ आगे बडते थे ,एक ही रेखा में| क्योंकि इस व्यूह का कभी उपयोग नहीं हुआ तो इसे तोड़ने का और शत्रु को इसके अन्दर कैसे फँसाया जाये इसका कोई विवरण नहीं है |

6-   मक्रव्यूह- मक्र का मतलब मकड़ी होता हे| आप सोच रहे होंगे की यह बहुत कमजोर व्यूह होगा पर ऐसा नहीं है | इसे बनाने के लिए 6 अक्षौहिणी सेना की जरुरत होती थी और जैसे मकड़ी के जाले में सात पंक्तियाँ होंती हैं उसी प्रकार इसमें भी सात पंक्तिया होती थीं| सब से आगे की पंक्ति में 30000 हजार सिपाही भाले और ढाल लेकर खडे रहते थे और कुछ सिपाही रस्सियाँ लेकर खडे रहते थे| जेसे ही कोई पहली पंक्ति के पास पहुँचता था रस्सी वाले सिपाही रस्सी के फंदे बनाकर उनके उपर फेक देते थे और व्यूह के अन्दर खीच लेते थे| भाले वाले सिपाही उन्हें मार देते थे| दूसरी पंक्ति में धनुर्दर रहते थे| अगर बहुत बडी सेना ने एक ही बार में हमला कर दिया तो वो अग्नि बाण चला के उस सेना को अग्नि के एक गोले में घेर लेते थे फिर उन्हें मार देते थे| इस व्यूह को तोड़ने का बस एक ही तरीका था और वो था कश्यप व्यूह| इसे केवल कश्यप व्यूह से ही तोडा जा सकता था

7-    सर्पव्यूह- यह व्यूह सर्प के आकार का होता था| इसे बनाने के लिए कम से कम 1 अक्षौहिणी सेना की जरुरत तो होती थी| इस व्यूह की खासियत थी की यह सर्प की तरह ही चलता था तो किसी को भी पता नहीं चलता था की व्यूह किस दिशा में जा रहा हे| इस व्यूह के सामने कैसी भी सेना आजाये यह उसे निगल लेता था मतलब अपने अन्दर ले लेता था बिलकुल एक साँप की तरह और फिर मार देता था| इस व्यूह को तोड़ने का बस एक ही तरीका था शेयांव्यूह( गरुण व्यूह) बस इसी तरीके से अगर इसके सिर पर वार किया जाये तो यह सर्प व्यूह टूट जा ता है|

8- मंडलव्यूह - यह व्यूह सूर्य मंडल जैसा था| जिसमे 9 गृह थे| उसी प्रकार इसमें 9 पंक्तियाँ 9 ग्रहों के आकार में खडी रहती थी| इसे बनाने के लिए 9 अक्षौहिणी सेना की जरुरत पड़ती थी| जैसे सूर्य मंडल में सूरज बीच में होता हैं और बाकी सब गृह उसकी परिक्रमा करते थे वेसे ही राजा इस व्यूह के बीच में होता था और बाकी सब पंक्तियाँ इसके चारों तरफ घूमती रहती थी |इसकी एक और खास बात यह थी की इस व्यूह को तोडा नहीं जा सकता था|

9 - श्येनव्यूह(गरुण व्यूह)- यह व्यूह आक्रमण के लिए कभी भी इस्तेमाल नहीं हुआ था इसे सिर्फ सर्प व्यूह को तोड़ने के लिए इस्तमाल किया गया था| इसलिए इसके बारे में जायदा विवरण नहीं मिलता|



 10-  सत्रहचक्र चक्रव्यूह- यह एक बहुत जटिल व्यूह में से एक है और इसे कम सेना के साथ भी बनाया जा सकता है| इस में 17 चक्र होते हैं | बीच के 17 वें चक्र में राजा होता है और बाकी 16 चक्र उसके इर्द गिर्द रहते हैं | इसके द्वारा किसी भी बडी सेना को 17 हिस्सों में बाँट कर मारा जा सकता हे| इसे किसी और व्यूह के द्वारा तोडा भी नहीं जा सकता हे| इसे तोड़ने का बस एक ही तरीका है कि इस के सब से कमजोर चक्र तो तोड़ा दिया जाये तो यह व्यूह टूट जायेगा|


    11-  त्रिशूलव्यूह- यह व्यूह त्रिशूल के आकार का होता था इसको बनाने के लिए 4 अक्षौहिणी सेना की जरुरत पडती थी| तीन अक्षौहिणी सेना इस व्यूह की नोक बनाते थे और बाकी की 1 अक्षौहिणी सेना त्रिशूल की लकडी बनाती थी जिस पर व्यूह की नोंक लगती थी| इस व्यूह की खासियत यह थी कि यह एक बार में तीन दिशाओं में हमला कर सकती थी और अगर इसकी एक नोक टूट भी जाये तो बाकी दो नोकों से हमला किया जा सकता था| अगर इस व्यूह में एक ही नोंक बचती थी तो भी यह हमला कर सकता था| इसे तोड़ने का बस एक ही तरीका था कि अगर इसके तीनो नोकों पर एक साथ हमला कर दिया जाये तो यह व्यूह ध्वस्त हो जायगा|

    12-  पद्मव्यूह(चक्रव्यूह)- यह सभी व्यूह में सब   से जटिल व्यूह है इसमें सात चक्र होते हैं जो   निरंतर घूमते रहते हैं और आगे बड़ते रहते हैं|   बिलकुल किसी स्क्रू की तरह | पर इसका   आकार  गोल होता हे| अगर कोई इस चक्रव्यूह   के अन्दर फँस गया और वो निकलना नहीं   जानता तो वो मारा जायेगा क्योंकि वो चक्रव्यूह के जितने अन्दर घुस जाये गा वो उतना ही मुश्किल हो जाएगा| इसे तोड़ने का बस एक ही तरीका है कि इसके घुसने के रास्ते को तोड़ दिया जाये| अभिमन्यु ने यह कर ने की कोशिस की थी पर जैसा मै  ने ऊपर लिखा है कि चक्रव्यूह दो तरह से लगातार घूमता रहता है| तो जिस समय अभिमन्यु ने च्क्रव्यूह में  प्रवेश किया था उस समय उसका निकास का रास्ता आगे था और घुसने का पीछे और वो निकासी के रस्ते से घुसे थे तो उनका सामना सब से ताकतवर योद्धाओं से पहले हुआ जिस की वजह से वो मारा गया|

13-  कश्यप्व्ह्यु- यह व्यूह कछ्युए के आकार का होता है| यह व्यूह चारों तरफ से बडी-बडी ढालों से बंद रहता हैं इसलिए बाहर के किसी भी आक्रमण का इस पर कुछ असर नहीं पडता| और यह शत्रुओं को बहुत बड़ी हानी पहुँचा सकता हे| पर यह व्यूह ऊपर से खुला रहता है तो अगर इस पर ऊपर से तीर चलाये जाये तो इस व्यूह को तोडा जा सकता है |

                   तो ऐसी थी हमारी प्राचीन भारत की  अतुल्य युद्ध नीतियाँ


                          || जय भारत || 


 17\05\2018

परम कुमार  
कक्षा - 9 
      कृष्णा पब्लिक स्कूल 
रायपुर
                                                                                                                                                                                                                                                                              


नोट : ब्लॉग में उपयोग किये गए चित्र निम्नलिखित सोर्स से लिए गए हैं :-


http://www.legendofvyas.com/library

http://allindiaroundup.com/mythology/how-was-a-chakravyuha-strategy-of-mahabharata-beaten/






Wednesday 9 May 2018

"शत्रु सफल और शौर्यवान   व्यक्ति के ही होते है।"
                                                                   - महाराणा प्रताप

नमस्कार दोस्तों आपका मेरे ब्लॉग में स्वागत है| आज का हमारा चर्चा का विषय उस राजपूत योद्धा पे है जिस का नाम इतिहास में अमर है| तो आइये शुरू करते हैं|
सन 1528 में महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र उदय सिंह को 1540 में राजा बनाया गया| अब आप सब सोच रहे होंगे की महाराणा सांगा की मृत्यु तो 1528 में हो गयी तो उनके पुत्र को 1540 में क्यों राजा बनाया गया? इसका कारण यह था की जब महाराणा सांगा की मृत्यु हुई थी उस समय उनकी उम्र बहुत कम थी तो उन्हें अपने नाना के पास बीकानेर भेज दिया गया था| इस बात का फायदा उठा के बहादुर शाह ने चित्तौरगढ़ पे आक्रमण कर जीत लिया था| फिर बाद में जब उदय सिंह 30 साल के हुए तो उनका विवाह रणथ्म्बौर के राजा वीर सिंह की बेटी से हुआ| फिर इन्होने 1540 में वीर सिंह जी के साथ मिल के चित्तौरगढ़ के साथ सम्पूर्ण मेवाड़ विजय कर लिया| यह दिन था 9 मई 1540 चैत्र शुक्ल पछ तृतीय जब मेवाड़ को उसका 48 महाराणा मिला| जी हाँ दोस्तों यह ब्लॉग महाराणा उदय सिंह पे नहीं उनके पुत्र महाराणा प्रताप सिंह पे| इस ब्लॉग में मैं आपको उनके इतिहास और हल्दीघाटी के प्रसिद्द युद्ध के बारे में बतागा|

महाराणा प्रताप का जन्म ९ मई १५४० को चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को हुआ था| महाराणा प्रताप के पिता का नाम उदय सिंह था और माता का जयवंता बाई| महाराणा प्रताप को इतिहास में उनके अद्भुत वीरता, साहस और बुद्धिमता के लिए जाना जाता है| महाराणा प्रताप के बारे में प्रसिद्ध है की उन्होंने अपना पहला युद्ध 9 वर्ष की आयु में अफगानों के विरुद्ध सन 1549 में लड़ा था और उसमे विजय भी प्राप्त की थी|

महाराणा प्रताप ने अपने बाल्यकाल में कई युद्ध लड़े थे जिसमे मारवाड़ का और जैसलमेर का युद्ध बहुत प्रसिद्ध है| हुआ कुछ यूँ था की मारवाड़ के राजा राव मालदेव ने मेवाड़ के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और उनकी सहयाता की बीकानेर के राजा वीरम देव सिंह ने और एक और ताकत जिसने इनकी मदद की वो थे मुग़ल| सन 1552 में सुबह आठ बजे यह युद्ध आरंभ हुआ| थोरी देर तो युद्ध चला फिर कुंवर प्रताप (महाराणा प्रताप) मारवाड़ के एक सैनिक के वार से घोड़े से गिर गए और उन्होंने देखा की युद्ध भूमि में केवल तीन राज्यों की ही सेना के शव हैं मुग़लों के सनिकों का एक भी शव नहीं हैं| तब उन्होंने अपने एक सैनिक से शंख मगवाया और बहुत जोर से बजाया सब राज्यों की सेना रुक गयीं और तब महाराणा प्रताप ने उन सब से कहा की यह मुग़लों की चाल है इसलिये इस युद्ध में केवल हमारे राजपुत सैनिकों के ही शव हैं  हम में से जो कोई भी युद्ध जीतेगा तो मुग़ल उस जीतने वाली सेना और उसके राजा को मार देगे| हमें आपस में लड़ने की बजाये इन मुगलों से युद्ध करना चाहिये| सब ने कुंवर प्रताप की बात को सहमति दी और सब राज्यों ने मिल कर मुग़लों के विरुद्ध युद्ध किया और मुग़लों को परास्त किया| मारवार और बिकानेर के राजाओं ने महाराणा उदय सिंह और कुंवर प्रताप से माफ़ी मांगी और उनसे वादा किया की आज के बाद अगर किसी भी युद्ध या कोई भी सहयाता की जरुरत पारी तो वो जरुर करेंगे| यह था महाराना प्रताप के शौर्य का प्रदर्शन|

कुंवर प्रताप के इस शौर्य से प्रसन्न हो के महाराणा उदय सिंह ने उन्हें मेवाड़ का युवराज घोषित कर दिया| मेवाड़ में तो सब कुछ अच्छा था| पर इस हार से मुग़लों को दिल्ली में बहुत बड़ा झटका लगा| वैसे तो मेवाड़ के साथ मुगलों का बहुत लम्बा संघर्ष रहा है| जैसे महाराणा सांगा का बाबर के साथ, महराणा उदय सिंह का हुमायूँ के साथ महाराणा प्रताप का अकबर के साथ और महाराणा अमर सिंह का जहाँगीर के साथ| परन्तु महाराणा प्रताप और अकबर का संघर्ष सबसे प्रसिद्ध है| इस हार से मुग़लों को बहुत बार झटका लगा था| अब वो मेवाड़ से इस हार का बदला लेने की तैयारी करने लगे| परन्तु मेवाड़ को इसके बारे में कुछ खबर नहीं थी| वो तो खुशियाँ मना रहा था कुंवर प्रताप का विवाह बिजोयोलिया के राजा राव माम्रख की पुत्री अजब्दें पवार से सन 1555 में हुआ था| जिनसे उनको अमर सिंह जी की प्राप्ति सन 1559 में हुई| फिर देखते देखते कई साल निकल गये फिर 23 जनवरी 1567 को कुंवर प्रताप को खबर मिली की इस्माइल बेग ने रणथ्म्बोर को घेर लिया है उस समय ररणथ्म्बोर के सूबेदार मेवाड़ के सेनापति जयमल मेरतिया थे| महाराणा प्रताप उनकी मदद के लिए रणथ्म्बोर चले गए| और इसी बात का फायदा उठा के मुग़ल बादशाह अकबर ने 24 जनवरी 1567 को मेवाड़ पे आक्रमण कर दिया यह सोच कर कि कुवर प्रताप चित्तौरगढ में नहीं है तो वो आसानी से युद्ध जीत जायेगा| पर वो शायद भूल चुका था की की चित्तौड़ का किला बाकी किलों जैसा नहीं था वो सब से अलग था क्योंकि “गढ़ों में गढ़ तो चित्तौरगढ़ बाकी सब गढ़रिया” |

चित्तौड़ के किले की खास बात यह थी की उसमे कुल 28 दरवाजे थे और वो अरावली की बहुत ऊँची पहाड़ी पर था इसलिए कोई चीज ऊपर से नीचे तो आ सकतीं थी पर नीचे से ऊपर नहीं| यही कारण था की मुग़लों की तोपों के गोले किले तक नहीं पहुँच पा रहे थे और नहीं उनके तीर और बन्दुकों की गोलियां भी मेवाड़ी सेना तक नही पहुच पा रही थीं|  कोई सेना जैसे पैदल या अश्वरोही सेना उस पहाड़ के पास भी नहीं पहुच पा रही थी क्योंकि जिस पहाड़ पे चित्तौड़ का किला बना था वो पहाड़ सात कृत्रिम नदियों से घिरा हुआ था| उन नदियों के पानी को सिर्फ महल के अन्दर से ही रोका जा सकता था| जब पानी बहना रुक जाता था तब एक सीढियों का रास्ता दीखता था और किले के २८ दरवाजे अपने आप खुल जाते थे| यह इस किले की खासियत थी| महाराणा उदय सिंह जी ने अपने एक सैनिक को बुलाया और उसके द्वारा गुप्त मार्ग से एक पत्र महाराणा प्रताप के पास रणथ्म्बोर भिजवाया| कुंवर प्रताप को जब पत्र मिला तब तक उनका काम हो चुका था उन्होंने इस्माइल बेग को मार दिया था और अब उनके साथ रणथ्म्बोर के सूबेदार जयमल मेरतिया भी अपनी 4000 की सेना के साथ कुंवर प्रताप की मदद के लिए चित्तौड़ आ रहे थे| अब तक अकबर चित्तौड़ की दिवाले तोड़ने में सफल नहीं हो पाया था| उसने चित्तौड़ की दीवाल तोड़ने के लिए रेत के पहाड़ बनवाए और उन पे तोपों को रखवा के चित्तौड़ की तरफ चलता था| पर तब भी तोप के गोले किले तक नहीं पहुच पाते थे| पर उधर किले के अन्दर भी हालत कुछ ठीक नहीं थी किले के अन्दर खाने पीने का समान भी ख़तम हो रहा था| उस सम जयमल मेरतिया ने महाराणा उदय सिंह और उनके पुरे परिवार को यह कह के किले से भेज दिया की “ मेवाड़-नाथ अगर आप जीवीत रहेंगे तो हम में यह विश्वास रहेगा की हमारे महाराणा जीवित हैं इसलिए मेरा आप से अनुरोध है की आप यहाँ से चले जाइये”| सब मंत्रियों ने इसका समर्थन किया और पुरे मेवाड़ के शाही परिवार को गुप्त मार्ग से उदयपुर भेज दिया | अब किले की पूरी कमान जयमल मेरतिया, फत्ता सिंह और रावत सिंह चुडावत पे थी| अकबर रोज हमला करता था पर उसके सिपाही हर दिन कम हो रहे थे| इसी तरह 8 महीने बीत गए| अब अकबर ने वापस दिल्ली लौटने का फैसला किया| पर 24 जुलाई 1567 को चित्तौड़ का और मुगलों का भाग्य बदल गया| पता नहीं कैसे अकबर की तोप का एक गोला किले के अन्दर पहुच गया और उस सतम्भ प लगा जिसे घुमाने से उन सातों कृत्रिम नदियों का पानी रुक जाता था और किले के सब दरवाजे खुल जाते थे| बस अब क्या था वो सतम्भ अब नष्ट हो चूका था और सब दरवाजे खुल चके थे| 25 जुलाई को सुबह सब स्त्रियों ने जौहर कर लिया और  सब पुरषों ने सर पर केशरिया पगड़ी पहन कर साका के लिए तैयार हो गए सुबह 9 बजे युद्ध आरंभ हुआ मात्र 10000 राजपूतों ने 70000 की मुगल सेना का ऐसा मुकाबला किया की अकबर खुद हैरान हो गया| अकबर युद्ध तो जीत गया पर उसके 55000 सैनिक मर गए और सिर्फ 15000 सैनिक बचे| राजपुतों की इस वीरता से खुश होकर अकबर ने आगरा में जयमल मेरतिया और फत्ता सिंह की मुर्तियां भी बनवाई| अकबर यह युद्ध जीत कर भी हार गया क्योंकि उसे न तो मेवाड़ का राजवंश मिला और नहीं मेवाड़ का खजाना| और दूसरी और महाराणा उदय सिंह जी ने मेवाड़ की नई राजधानी उदयपुर का निर्माण भी कर लिया| अब वो मुगलों से टक्कर लेने के लिए सेना संगठित कर रहे थे| 1 मार्च 1572 को महाराणा उदय सिंह जी का देहांत हो गया| 32 वर्ष की आयु में 9 मार्च, 1572 को कुंवर प्रताप बन गए महाराणा प्रताप|

महाराणा प्रताप ने मुगलों से टक्कर लेने के लिए एक बहुत बड़ी सेना का निर्माण किया| इनकी सेना में राजपूत, भील और अफगान थे| सन 1576 में अकबर ने मेवाड़ को जीतने के लिए एक आखरी प्रयास किया और मान सिंह के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सेना उदयपुर भेजी| युद्ध से पहले मानसिंह ने उदयपुर के महल में महाराणा प्रताप से संधि वार्ता करने गए जिसमे महाराणा प्रताप ने खुद ना जाकर अपने पुत्र अमर सिंह को भेजा मानसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और युद्ध की घोषणा कर दी| यह प्रसिद्ध युद्ध हल्दीघाटी के मैदान में लड़ा गया था| युद्ध दो दिन चला था 18 जून और 23 जून| 18 जून के युद्ध में महाराणा प्रताप ने 17 चक्र की व्यूह का निर्माण किया और मुगलों को ऐसी चतुराई से उस चक्र्व्हू के अन्दर फसाया की उन्हें पता ही नहीं चला की वो चक्र्व्हू में फंस चुके है| मुग़लों की 80000 की सेना 17 भागों में बाट चुकी थी| महारण प्रताप की सेना 25000 की थी| क्योंकि मुगलों की सेना बंट चुकी थी तो उन्हें मारना आसान हो गया था| तभी मानसिंह को खबर मिली की महाराणा प्रताप के बहनोई शालिवन सिंह तोमर सब से कम सैनिकों के साथ युद्ध कर रहे है| तो उन्होंने मुगलों के सबसे लम्बे और खतरनाक सेनापति बहलोल खां को शालिवन सिंह तोमर को मारने भेजा| उसने अपने एक सैनिक का सहारा लेते हुए शालिवान सिंह को 3 गोलियां मार दी और उससे उनकी मौत हो गयी| जब यह बात महाराणा प्रताप को पता चली तो उन्होंने तलवार के एक ही वार से घोड़े के साथ बहलोल खां को भी दो टुकड़ों में काट दिया (इसकी पेंटिंग उदयपुर के आर्ट गैलरी में है)| इससे उनकी शक्ति और ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है| बहलोल खां के मरने से मानसिंह को बहुत बड़ा झटका लगा तो उसने शंख बजा के युद्ध रुकवा दिया और दोनों सेनाये अपने खेमों में वापस लौट गयी| इस युद्ध में मानसिंह के 20000 मुग़ल सैनिक मरे गये थे| और महाराणा प्रताप के मात्र 500| पर तब भी मुग़लों की सेना 60000 की थी और महाराणा प्रताप की 24500 की| अब अगला युद्ध  खुले मैदान में आमने सामने की लड़ाई का था| 23 जून को यह युद्ध आरंभ हुआ महाराणा प्रताप ने अपना सीधा निशना मानसिंह को बनाया पर मान सिंह के पास पहुँचने तक महाराणा प्रताप काफी घायल हो चुके थे| तब भी उन्होंने हार नहीं मानी और चेतक की लगाम कसी और चेतक ने अपने सामने के दोनों पैर मानसिंह के हांथी पे रख दिए| अब महाराणा प्रताप ने अपने भाले का ऐसा वार किया की मान सिंह नीचे गिर गया परन्तु मानसिंह के हाथी के सूड़ में एक तलवार बंधी थी जिसे चेतक का एक पैर जख्मी हो गया था और  महाराणा प्रताप भी काफी जख्मी हो चुके थे|| तब उनके एक सेनापति जो बिलकुल महाराणा प्रताप की तरह दीखते थे उनका नाम था मान सिंह झाला उन्होंने महाराणा प्रताप की राज छतरी अपने ऊपर ले ली और महाराणा प्रताप को युद्ध से यह बोल के निकल दिया की आप जीवित रहेंगे तो स्वंत्रता की आस जीवित रहेगी| महाराणा प्रताप युद्ध से निकल तो गये पर चेतक की हालत ठीक नहीं थी फिर भी उसने महाराणा प्रताप की रक्षा के लिए 24 फीट लम्बा नाला एक ही छलांग में पर किया फिर वहा पे उसने अपना दम तोड़ दिया| तभी वहां पे उनके भाई शक्ति सिंह (यह मुग़लों से मिल चुके थे पर मुगलों का छल देख कर यह वापस महाराणा प्रताप के साथ मिल गये)  और कहा कुछ मुग़ल सैनिक यहीं आ रहें है आप यह मेरा घोडा ले जाइये और यहाँ से चले जाईये और वहां युद्ध में मुगलों ने मानसिंह झाला को महाराणा प्रताप समझ के मार दिया| अब महाराणा प्रताप के पास अब नहीं धन था नहीं सेना| ऐसी स्थिति मे उनका साथ भीलों ने दिया|

जब महाराणा प्रताप जंगल जंगल भटक रहे थे और अपनी नई सेना का निर्माण कर रहे थे तो उस समय की एक कहानी प्रसिद्ध है| उस समय की बात है, एक दिन महाराणा प्रताप की बेटी रमा कंवर रोटी खा रही थी तभी एक बिल्ला आके वो रोटी छीन के ले गया| यह देख कर महाराणा प्रताप की आँखों में आंसू आ गए और उन्होंने सोचा की मेरे कारण मेरे बच्चे और सारे मेवाड़ निवासी जंगल जंगल भटक रहे हैं इससे तो अच्छा है कि मै अकबर से संधि कर लूँ और उन्होंने एक संधि पत्र अकबर के पास दिल्ली भेजा| जब यह पत्र दिल्ली पहुँचा तो सब चकित रहा गये| अकबर समेत सब को लगा की किसी ने यह मजाक किया हे| क्योंकि कोई भी महाराणा प्रताप की हस्त लेखा को नहीं पहचानता था| इसलिए अकबर ने पृथ्वी राज राठौर को वो पत्र दिखा के पूछा ये महाराणा प्रताप का ही पत्र है या किसी ने मजाक किया है| वो पत्र देखते ही पृथ्वी राज राठौर पहचान गए कि यह पत्र महाराणा प्रताप ने ही लिखा था| उन्होंने अकबर से बोला की वो अगले दिन इसका उत्तर दे पाएंगे | रात में उन्होंने दूत को एक पत्र महाराणा प्रताप के नाम का प देकर भगा दिया और दुसरे दिन अकबर को बोले की वो पत्र महाराणा पत्र का लिखा नहीं था| पृथ्वी राज राठौर  ने महाराणा को पत्र में ये लिखा कि आप ही हम राजपुतों की आखरी आशा हैं आप अकबर से संधि ना करे| हम लोग मजबूर हैं इसलिए हम आप की सहायता नहीं कर सकते| पृथ्वी राज राठौर के पत्र को पढ़कर महाराणा को अत्यंत ग्लानी महसूस हुई और उन्होंने उसी समय प्रण लिया की मेवाड़ को वो किसी भी कीमत पर मुगलों से मुक्त कराएँगे|

तब इश्वर के रूप में मेवाड़ के नगर सेठ भामाशाह वहां आये और महाराणा प्रताप को पचास लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी| महराणा प्रताप ने इससे एक नई सेना का निर्माण किया जिसमें भील सेनानी प्रमुख थे और अपनी छापामार शैली की युद्ध नीति से  धीरे धीरे चित्तौड़गढ़ छोड़ के सम्पूर्ण मेवाड़ पर विजय प्राप्त कर लिया| 1597 में इनके दिल के पास एक गहरा घाव था जो की भरा नहीं था| उसी की वजह से उनकि मृत्यु हो गयी| उनकि आखरी इच्छा को इनके पुत्र अमर सिंह ने पूरी की और बाद में चित्तौड़ जीत लिया| इनकी मृत्यु के समय अकबर की भी आखों से आंसू निकल गए थे| तो ऐसा था महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व|

मै अपना यह ब्लॉग, आज महाराणा प्रताप के जयंती के अवसर पे उनको श्रद्धांजलि के तौर पर अर्पित करता हूँ|

महाराणा प्रताप के बारे में कुछ खास बाते –

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि अकबर ने तो महाराणा प्रताप को हराया था पर महाराणा प्रताप ने अकबर को कभी भी नहीं हराया| वास्तविकता में महाराणा प्रताप जिस हल्दी घाटी के युद्ध में हारे उसके बाद उन्होंने ये समझ लिया था कि मुगलों से जीतने के लिए परंपरागत युद्ध शैली की जगह छापामार युद्ध शैली ही कामयाब रहेगी| इसके बाद उन्होंने मुगलों को पहाड़ों और जंगलों में जिस में मुग़ल अक्सर भ्रमित हो जाते थे कई बार हराया जिससे मुगलों का मनोबल टूटने लगा और अकबर भी दिल्ली में हमेशा इस पेशोपेश में रहा की बड़ी सेना को युद्ध करने कहाँ भेजूं क्योंकि महाराणा प्रताप को कोई एक ठिकाना तो था नहीं | अपने इसी उच्च मनोबल से और अकबर समेत पूरी मुग़ल सेना को हताश करके महाराणा प्रताप ने हल्दी घाटी का युद्ध हारने के बाद कई युद्ध मुगलों से जीते और मेवाड़ को वापस प्राप्त किया|    

उनका भारतीय इतिहास में इसलिए महत्व है कि उन्होंने अपना पूरा राज्य हारने के बाद फिर से न केवल मेवाड़ को प्राप्त किया बल्कि अपने नागरिको की सुरक्षा के लिए उस समय के मेवाड़ की नयी राजधानी चावंड का निर्माण कराया (जहाँ से वो शासन करते थे) वो भी ऐसे समय में जबकि उनके पास रहने के लिए छत भी नहीं थी| उनके संकट के समय में भी हार ना मानने वाले, जुझारू व्यक्तित्व, मुश्किल समय में भी नेतृत्व करने की कुशलता, वीरता और शौर्यता के साथ साथ अपने देश के नागरिकों के प्रति समर्पण उन्हें सबका आदर्श बनाती है और इतिहास में महत्वपूर्ण दर्जा दिलाती है|

महाराणा प्रताप की लम्बाई 7 फूट 10 इंच थी|

महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलो था (इतना ही अकबर का वजन था) और वो युद्ध में दो तलवारे रखते थे| हर एक का वजन 42 किलो था, अर्थात दोनों तलवारों का कुल वजन 84 किलो  था| उनके कवच का वजन 72 किलो था| वो जो पीठ पे ढाल रखते थे उसका वजन 100 किलो था| उनका मुकुट 10 किलो का था और पैर के एक जुते का वजन 5 किलो और कुल 10 किलो वजन था उनके दोनों जूतों का | इससे हमें यह पता चलता है कि महाराणा प्रताप कुल 356 किलो का वजन लेके युद्ध करते थे|

महाराणा प्रताप भगवन श्री राम चन्द्र की तरह ही सूर्य वंशी राजा थे और उन्होंने भी श्री राम की तरह वनवास भोगकर मेवाड़ राज्य फिर प्राप्त किया था इसिलए ऐसा कहा जाता है कि एक बार गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं आकर महाराणा प्रताप से भेंट की थी |

 || महावीर महाराणा प्रताप की जय ||

                               धन्यवाद 
09/05/2018                                                    
                                                                  परम कुमार 
कक्षा ९ 
कृष्णा पब्लिक स्कूल
रायपुर 
  
महाराणा प्रताप की फोटो गूगल के नीच दी गयी लिंक से ली गयी है|                                                                    
  http://bahadurbharat.blogspot.in/2015/05/blog-post.html 

                                                                                       


Saturday 5 May 2018

पानीपत की तीसरी लड़ाई


नमस्कार दोस्तों |

आपका मेरे ब्लॉग में एक बार फिर स्वागत है|

आज का हमारा चर्चा का विषय उस युद्ध पे है जिससे यह फैसला होने वाला था की हिंदुस्तान मराठों कि हुकूमत में रहेगा, कि मुसलमानों या  अंग्रेजों की | जी हां दोस्तों में बात कर रहा हू पानीपत की तीसरी लड़ाई की| तो आइये शुरू करते हैं|
सन १७५९ यह वो साल था जब अफ़गानी लुटेरा अहमद शाह अब्दाली अपनी सेना लेकर पांचवी बार भारत आ रहा था| इस बार रोहिलाखंड के नवाब नाजिबुद्दुला के बुलावे पर अहमदशाह अब्दाली भारत आया था| नाजिबुद्दुला अपने को कुछ बनाने के लिया भारत वर्ष का सब कुछ लुटाने को तैयार था| उस समय भारत के उत्तरी और पश्चिम में कोई भी राजा इतना शक्तिशाली नहीं था जो अब्दाली का विरोध कर सके| तब मराठों के राजा पेशवा बालाजी विश्वनाथ बाजीराव बल्लाल ने अब्दाली से टक्कर लेने का निर्णय किया|  इसके लिए उन्होंने पुणे से लगभग ८०० किलोमीटर  दूर दिल्ली की तरफ, अपने मराठे  लड़ाकों की सेना को अपने भाई सदाशिवराव भाऊ की कमान में रवाना किया| पर ऐसा क्या महत्वपूर्ण कारण था कि अहमद शाह अब्दाली अपनी सेना सहित पानीपत का युद्ध जीतने के बाद भी वापस अफगानिस्तान लौट गया?

सन १७४० में पेशवा बालाजी बाजीराव बल्लाल भट की मृत्यु के बाद उनके पुत्र बालाजी विश्वनाथ बाजीराव बल्लाल भट पेशवा बने और इनके राज्यकाल में मराठों ने काफी नए राज्य जीते जिसमे हैदराबाद की जीत का किस्सा बहुत प्रसिद्ध है|  हैदराबाद की जीत के समय सेना की कमान सदाशिवराव भाऊ के हाथों में थी| वे हांथी पे बैठ कर युद्ध का निर्देश दे रहे थे की तभी निजाम के तोपची इब्राहिमखां गर्दी के तोप का गोला उनके बाजु से निकला| इतने सटीक निशाना देख कर सदाशिवराव भाऊ ने युद्ध जीतने के बाद निजाम से कहा हमें कुछ नहीं चाहिये हमें बस आप अपना तोपची इब्राहिमखां गर्दी दे दीजिये| इसी इब्राहीम ने पानीपत के युद्ध में मराठों की काफी मदद की थी

इस समय मराठे तो अपनी बुलंदी पर थे पर दिल्ली की हालत ठीक नहीं थी| मराठों कि शह पर मुग़ल बादशाह अलाम्गीरी के मरने के बाद उनके बेटे शाह आलम द्वितीय को मुगल राजा बनाया गया| यह सिर्फ नाम के राजा थे| रोहिलाखंड का नवाब नाजिबुद्दुला मुगलिया सल्तनत का वजीर बनना चाहता था| पर उसे ये डर था कि कहीं मराठे आक्रमण करके उसे युद्ध में मार ना डालें| तो उसने अफगानिस्तान से अहमद शाह अब्दाली को यह कहकर भारत बुलाया की यहाँ पर मराठे मुलमानों पर बहुत जुर्म करते हैं| यह सुनकर अहमद शाह अब्दाली अपने साथं कई हजार की सेना लेकर भारत में सन १७५९ को पंहुचा सब से पहले उसने पंजाब को जीता और अब दिल्ली की और बढ़ा| जब अब्दाली के भारत आने की बात मराठों को पता चली तो पेशवा बालाजी विश्वनाथ बाजीराव बल्लाल भट ने पुणे से दो लाख की सेना लेकर अपने भाई सदाशिव राव भाऊ की कमान में दिल्ली की ओर रवाना किया| जब मराठा दिल्ली पुहंचे तो उन्हें पता चला की अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब को जीतने के बाद लूट का सारा पैसा और सामान कन्च्पुरा (जिला करनाल, हरियाणा)  के किले में रखा हे| उन्होंने कन्च्पुरा पर आक्रमण कर उसे जीत लिया| अब अब्दाली के पास इतना धन नहीं था की वो अंपनी सेना को तनखा दे सके| तब उसने नाजिबुद्दुला से कहा कि तुम ने ही मुझे भारत बुलाया था अब तुम ही मेरी सेना को धन दो| यह सुनकर नाजिबुद्दुला ने सोचा की वो इतना धन कहाँ से लायेगा तब उसे याद आया की अवध के नवाब सुजौद्दुला के पास बहुत धन है तो उसने उससे मदद मांगी पर सजुद्दौला ने मना कर दिया|  तो नाजिबुद्दुला ने उसे यह कहकर डरा दिया की अगर अब्दाली युद्ध जीत गया तो वो उसे माफ़ नहीं करेंगा| यह सुनकर सुजौद्दुला ने नाजिबुद्दुला को आर्थिक मदद के रूप में पचास लाख रुपये दे दिए| अब्दाली को रुपये तो मिल गए पर जब वो भारत आया तो उसने सुना था मराठे बहुत खतरनाक लड़ाके होंते हैं| तो वो मन ही मन मराठों से संधि करना चाहता था| पर जब यह बात नाजिबुदुला को पता चली तो उसने यह संधि रुकवाने के लिए मराठों के एक सरदार गोविन्द्पंत का खून करवा दिया और अपने कुछ सैनिको को मराठों की सनिकों की भेष-भूषा पहना के अब्दाली के मंत्री वजीर खां पे हमला कर व दिया| उसका यह काम आग में घी डालने जैसा था| फिर क्या था दोनों ओर से युद्ध का बिगुल बज गया| १४ जनवरी १७६१ को पानीपत के मैदान में दोनों की सेना आ डटी|

युद्ध आरंभ होने के दो दिन पहले अब्दाली के सैनिकों ने मराठों के खाने-पीने के समान को लूट लिया था|  क्योंकि उसे लगा मराठे बिना खाये पीये ज्यादा देर युद्ध नहीं कर पाएंगे| फिर १४ जनवरी १७६१ में सुबह नौ बजे पानीपत में युद्ध शुरू हो गया| युद्ध की शुरुआत अबदाली ने तोपों से हमला करवा के की| जवाब में मराठों के तोपची इब्राहीम खां ने ऐसी गोला बारी की अब्दाली के कई सैनिक और तोपें किसी काम के नहीं रहे| और अब्दाली घबरा के अपने शिविर में लौटने वाला था|  इसलिए उसने अपनी अश्वरोही सेना को आगे भेजा  जवाब में सदशिव राव भाऊ ने भी अपनी अश्वरोही सेना के सेनापति को आदेश दिया की अगर युद्ध के बीच में अब्दाली की सेना भागने लगे तो उनका पीछा मत करना, वापस आ जाना| जब मराठों और अब्दाली की अश्वरोही सेना के बिच युद्ध हुआ तो थोड़ी देर तो अब्दाली की सेना ने युद्ध किया परन्तु मराठों के जोश और वीरता से उनका मनोबल टूटने लगा और फिर वो वापस लौटने लगे| तब मराठों के अश्वरोही सेना के सरदार विन्चुरकर ने सदाशिव राव की बात का उलंघन करते हुए जोश में आकार अब्दाली की सेना का पीछा किया पर थोड़ी दूर जा के  अब्दाली की सेना ने इन्हें घेर लिया और गोलियों से पूरी अश्वरोही सेना का सर्वनाश कर दिया| अब सदाशिव राव भायु ने अपने सभी मोर्चे खोल दिए और अब्दाली पर आक्रमण कर दिया| अब्दाली ने सोचा था की भूखे पेट मराठे कितने देर लड़ पाएंगे जल्दी ही यह जंग वो जीत लेगा| पर युद्ध के समय ये एहसास हुआ कि उसने मराठों के बारे में गलत अनुमा लगाया था क्योंकि भूखे पेट मराठी सनिक अब्दाली के सेनिकों को गाजर-मुली की तरह काट रहे थे| तभी अब्दाली के एक  सैनिक की गोली पेशवाजी के पुत्र विश्वास राव को लगी और वो घोड़े से गिर गए अपने भतीजे को बचाने के लिए सदाशिव राव अपने हाथी  से उतरकर नीचे आ गए तो मराठे सैनिको ने जब हाथी पर अपने सेनापति को नहीं देखा तो उन्हें लगा कि सदाशिव राव नहीं रहे|  यहीं से दिन के आखरी पहर में युद्ध कि दिशा बदल गयी| अब्दाली ने सदशिव राव भाऊ को बन्दुकचियों और अश्वरोही सेना से घिरवा के मरवा दिया परन्तु अंत तक सदाशिव राव का शव किसी को नहीं मिला | अब्दाली अब यह युद्ध जीत चुका था| पर क्या कारण था की युद्ध जितने के बावजूद वो भारत से वापस चला गया?

पानीपत में भयानक युद्ध हुआ और मराठों के पराक्रम के आगे बहुत मुश्किल से अब्दाली को विजय हासिल हो पाई | मराठों का साहस और शौर्य देखकर अब्दाली ने भारत पर शासन करने का विचार त्याग दिया और उसको ये लगा कि इस युद्ध में तो वो जीत गया पर यदि फिर से मराठे पुणे से अपनी और सेना लेकर आ गए तो उसे एक विदेशी धरती पर ही मरना पड़ेगा|  इसी भय से वो भारत छोड़कर वापस अफगानिस्तान लौट गया|

पानीपत के युद्ध में मराठे हराकर भी विदेशी आक्रमणकारी को भारत से बाहर का रास्ता दिखा दिए वहीँ अब्दाली जीकर भी भारत पर शासन नहीं कर पाया| इस युद्ध कि विशेषता ये है कि मराठों के सेनापति सदाशिव राव भाऊ के कुशल नेतृत्व में कई मुसलमानों ने अब्दाली के विरुद्ध युद्ध किया| जिन्हें युद्ध के पहले नाजीबदुल्ला और अब्दाली द्वारा कई प्रलोभन दिए गये थे इसमें तोपची इब्राहीम खान गर्दी प्रमुख थे|  परन्तु वे अंत तक मराठों से निष्ठा निभाए|  इसके अलावा इस युद्ध में अफगानों से शमशेर बहादुर ने भी लोहा लिया था| शमशेर बहादुर अपने माता पिता तरह ही बहुत वीर और सुन्दर  था| दोस्तों शमशेर बहादुर के माता पिता का नाम पेशवा बाजीराव और मस्तानी था जिसे आपने शायद पिक्चर (बाजीराव मस्तानी movie) में एक छोटे से बच्चे के रूप में देखा होगा| जिसे उसके मातापिता के मरने के बाद काशी बाई ने अपनाया था|    

सबसे बड़ी और विशेष बात, इस युद्ध का जनक, जिसने अब्दाली को भारत बुलाया था केवल अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिये, नजीबद्दुला वो आपके विचार में कैसा शख्स रहा होगा ? इस व्यक्ति के सम्मान और शायद याद में वर्तमान उत्तर प्रदेश के एक शहर का नाम रखा गया है नजीबाबाद (जो अत्यंत आश्चर्यजनक है) |  

परन्तु इसके विपरीत युद्ध में भारत देश को विदेशियों से बचाने में अपने प्राणों का न्योछावर करने वाले मराठों के सेनापति और उनके अन्य शहीद हुए सरदारों पर शायद कोई एक या दो तस्वीर या शिलालेख किसी शहर में होगा (जो शायद ही अच्छी स्थिति हो)|

     यह था मराठों का अनुठा साहस जिसके कारण शत्रु जीतकर भी मराठों की वीरता से हार गया|

                  सदाशिव राव भाऊ को सादर नमन् |

०५/०५/२०१८                                                                       
परम कुमार
कक्षा-९
कृष्णा पब्लिक स्कूल

                                                                          




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