"शत्रु सफल और शौर्यवान व्यक्ति के ही होते है।"
- महाराणा प्रताप
नमस्कार दोस्तों
आपका मेरे ब्लॉग में स्वागत है| आज का हमारा चर्चा का विषय उस राजपूत योद्धा पे है
जिस का नाम इतिहास में अमर है| तो आइये शुरू करते हैं|
सन 1528 में महाराणा
सांगा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र उदय सिंह को 1540 में राजा बनाया
गया| अब आप सब सोच रहे होंगे की महाराणा सांगा की मृत्यु तो 1528 में हो
गयी तो उनके पुत्र को 1540 में क्यों राजा बनाया गया? इसका कारण यह था की जब
महाराणा सांगा की मृत्यु हुई थी उस समय उनकी उम्र बहुत कम थी तो उन्हें
अपने नाना के पास बीकानेर भेज दिया गया था| इस बात का फायदा उठा के बहादुर शाह ने
चित्तौरगढ़ पे आक्रमण कर जीत लिया था| फिर बाद में जब उदय सिंह 30 साल के हुए तो
उनका विवाह रणथ्म्बौर के राजा वीर सिंह की बेटी से हुआ| फिर इन्होने 1540 में वीर
सिंह जी के साथ मिल के चित्तौरगढ़ के साथ सम्पूर्ण मेवाड़ विजय कर लिया| यह दिन
था 9 मई 1540 चैत्र शुक्ल पछ तृतीय जब मेवाड़ को उसका 48 महाराणा मिला| जी हाँ
दोस्तों यह ब्लॉग महाराणा उदय सिंह पे नहीं उनके पुत्र महाराणा प्रताप सिंह
पे| इस ब्लॉग में मैं आपको उनके इतिहास और हल्दीघाटी के प्रसिद्द युद्ध के बारे
में बताउगा|
महाराणा प्रताप का
जन्म ९ मई १५४० को चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को हुआ था| महाराणा प्रताप के पिता का
नाम उदय सिंह था और माता का जयवंता बाई| महाराणा प्रताप को इतिहास में उनके अद्भुत
वीरता, साहस और बुद्धिमता के लिए जाना जाता है| महाराणा प्रताप के बारे में
प्रसिद्ध है की उन्होंने अपना पहला युद्ध 9 वर्ष की आयु में अफगानों के विरुद्ध सन
1549 में लड़ा था और उसमे विजय भी प्राप्त की थी|
महाराणा प्रताप ने
अपने बाल्यकाल में कई युद्ध लड़े थे जिसमे मारवाड़ का और जैसलमेर का युद्ध बहुत
प्रसिद्ध है| हुआ कुछ यूँ था की मारवाड़ के राजा राव मालदेव ने मेवाड़ के विरुद्ध
युद्ध की घोषणा कर दी और उनकी सहयाता की बीकानेर के राजा वीरम देव सिंह ने और एक
और ताकत जिसने इनकी मदद की वो थे मुग़ल| सन 1552 में सुबह आठ बजे यह युद्ध आरंभ
हुआ| थोरी देर तो युद्ध चला फिर कुंवर प्रताप (महाराणा प्रताप) मारवाड़ के एक सैनिक
के वार से घोड़े से गिर गए और उन्होंने देखा की युद्ध भूमि में केवल तीन राज्यों की
ही सेना के शव हैं मुग़लों के सनिकों का एक भी शव नहीं हैं| तब उन्होंने अपने एक सैनिक
से शंख मगवाया और बहुत जोर से बजाया सब राज्यों की सेना रुक गयीं और तब महाराणा
प्रताप ने उन सब से कहा की यह मुग़लों की चाल है इसलिये इस युद्ध में केवल हमारे
राजपुत सैनिकों के ही शव हैं हम में से जो कोई भी युद्ध जीतेगा तो मुग़ल उस जीतने वाली सेना और उसके राजा को मार देगे| हमें आपस में लड़ने की बजाये इन मुगलों से
युद्ध करना चाहिये| सब ने कुंवर प्रताप की बात को सहमति दी और सब राज्यों ने मिल
कर मुग़लों के विरुद्ध युद्ध किया और मुग़लों को परास्त किया| मारवार और बिकानेर के
राजाओं ने महाराणा उदय सिंह और कुंवर प्रताप से माफ़ी मांगी और उनसे वादा किया की
आज के बाद अगर किसी भी युद्ध या कोई भी सहयाता की जरुरत पारी तो वो जरुर करेंगे|
यह था महाराना प्रताप के शौर्य का प्रदर्शन|

चित्तौड़ के किले
की खास बात यह थी की उसमे कुल 28 दरवाजे थे और वो अरावली की बहुत ऊँची पहाड़ी पर था
इसलिए कोई चीज ऊपर से नीचे तो आ सकतीं थी पर नीचे से ऊपर नहीं| यही कारण था की
मुग़लों की तोपों के गोले किले तक नहीं पहुँच पा रहे थे और नहीं उनके तीर और
बन्दुकों की गोलियां भी मेवाड़ी सेना तक नही पहुच पा रही थीं| कोई सेना जैसे पैदल या अश्वरोही सेना उस पहाड़ के
पास भी नहीं पहुच पा रही थी क्योंकि जिस पहाड़ पे चित्तौड़ का किला बना था वो पहाड़
सात कृत्रिम नदियों से घिरा हुआ था| उन नदियों के पानी को सिर्फ महल के अन्दर से
ही रोका जा सकता था| जब पानी बहना रुक जाता था तब एक सीढियों का रास्ता दीखता था
और किले के २८ दरवाजे अपने आप खुल जाते थे| यह इस किले की खासियत थी| महाराणा उदय
सिंह जी ने अपने एक सैनिक को बुलाया और उसके द्वारा गुप्त मार्ग से एक पत्र
महाराणा प्रताप के पास रणथ्म्बोर भिजवाया| कुंवर प्रताप को जब पत्र मिला तब तक
उनका काम हो चुका था उन्होंने इस्माइल बेग को मार दिया था और अब उनके साथ रणथ्म्बोर के सूबेदार जयमल मेरतिया भी अपनी 4000 की सेना के साथ कुंवर प्रताप की
मदद के लिए चित्तौड़ आ रहे थे| अब तक अकबर चित्तौड़ की दिवाले तोड़ने में सफल नहीं हो
पाया था| उसने चित्तौड़ की दीवाल तोड़ने के लिए रेत के पहाड़ बनवाए और उन पे तोपों को
रखवा के चित्तौड़ की तरफ चलता था| पर तब भी तोप के गोले किले तक नहीं पहुच पाते थे|
पर उधर किले के अन्दर भी हालत कुछ ठीक नहीं थी किले के अन्दर खाने पीने का समान भी
ख़तम हो रहा था| उस समय जयमल मेरतिया ने महाराणा उदय सिंह और उनके पुरे परिवार को
यह कह के किले से भेज दिया की “ मेवाड़-नाथ अगर आप जीवीत रहेंगे तो हम में यह
विश्वास रहेगा की हमारे महाराणा जीवित हैं इसलिए मेरा आप से अनुरोध है की आप यहाँ
से चले जाइये”| सब मंत्रियों ने इसका समर्थन किया और पुरे मेवाड़ के शाही परिवार को
गुप्त मार्ग से उदयपुर भेज दिया | अब किले की पूरी कमान जयमल मेरतिया, फत्ता सिंह और
रावत सिंह चुडावत पे थी| अकबर रोज हमला करता था पर उसके सिपाही हर दिन कम हो रहे थे| इसी तरह 8 महीने बीत गए| अब अकबर ने वापस दिल्ली लौटने का फैसला किया| पर 24
जुलाई 1567 को चित्तौड़ का और मुगलों का भाग्य बदल गया| पता नहीं कैसे अकबर की तोप
का एक गोला किले के अन्दर पहुच गया और उस सतम्भ पर लगा जिसे घुमाने से उन सातों कृत्रिम नदियों का पानी रुक जाता था और किले के सब दरवाजे खुल जाते थे| बस अब
क्या था वो सतम्भ अब नष्ट हो चूका था और सब दरवाजे खुल चके थे| 25 जुलाई को सुबह
सब स्त्रियों ने जौहर कर लिया और
सब पुरषों ने सर पर केशरिया पगड़ी पहन कर साका के लिए तैयार हो गए
सुबह 9 बजे युद्ध आरंभ हुआ मात्र 10000 राजपूतों ने 70000 की मुगल सेना का ऐसा
मुकाबला किया की अकबर खुद हैरान हो गया| अकबर युद्ध तो जीत गया पर उसके 55000 सैनिक
मर गए और सिर्फ 15000 सैनिक बचे| राजपुतों की इस वीरता से खुश होकर अकबर ने आगरा
में जयमल मेरतिया और फत्ता सिंह की मुर्तियां भी बनवाई| अकबर यह युद्ध जीत कर भी
हार गया क्योंकि उसे न तो मेवाड़ का राजवंश मिला और नहीं मेवाड़ का खजाना| और दूसरी
और महाराणा उदय सिंह जी ने मेवाड़ की नई राजधानी उदयपुर का निर्माण भी कर लिया| अब
वो मुगलों से टक्कर लेने के लिए सेना संगठित कर रहे थे| 1 मार्च 1572 को महाराणा उदय
सिंह जी का देहांत हो गया| 32 वर्ष की आयु में 9 मार्च, 1572 को कुंवर प्रताप बन गए
महाराणा प्रताप|
महाराणा प्रताप ने
मुगलों से टक्कर लेने के लिए एक बहुत बड़ी सेना का निर्माण किया| इनकी सेना में राजपूत,
भील और अफगान थे| सन 1576 में अकबर ने मेवाड़ को जीतने के लिए एक आखरी प्रयास किया
और मान सिंह के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सेना उदयपुर भेजी| युद्ध से पहले मानसिंह
ने उदयपुर के महल में महाराणा प्रताप से संधि वार्ता करने गए जिसमे महाराणा प्रताप
ने खुद ना जाकर अपने पुत्र अमर सिंह को भेजा मानसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और
युद्ध की घोषणा कर दी| यह प्रसिद्ध युद्ध हल्दीघाटी के मैदान में लड़ा गया था|
युद्ध दो दिन चला था 18 जून और 23 जून| 18 जून के युद्ध में महाराणा प्रताप ने 17
चक्र की व्यूह का निर्माण किया और मुगलों को ऐसी चतुराई से उस चक्र्व्हू के अन्दर
फसाया की उन्हें पता ही नहीं चला की वो चक्र्व्हू में फंस चुके है| मुग़लों की 80000
की सेना 17 भागों में बाट चुकी थी| महारण प्रताप की सेना 25000 की थी| क्योंकि मुगलों
की सेना बंट चुकी थी तो उन्हें मारना आसान हो गया था| तभी मानसिंह को खबर मिली की
महाराणा प्रताप के बहनोई शालिवन सिंह तोमर सब से कम सैनिकों के साथ युद्ध कर रहे
है| तो उन्होंने मुगलों के सबसे लम्बे और खतरनाक सेनापति बहलोल खां को शालिवन सिंह
तोमर को मारने भेजा| उसने अपने एक सैनिक का सहारा लेते हुए शालिवान सिंह को 3
गोलियां मार दी और उससे उनकी मौत हो गयी| जब यह बात महाराणा प्रताप को पता चली तो
उन्होंने तलवार के एक ही वार से घोड़े के साथ बहलोल खां को भी दो टुकड़ों में काट
दिया (इसकी पेंटिंग उदयपुर के आर्ट गैलरी में है)| इससे उनकी शक्ति और ताकत का
अंदाजा लगाया जा सकता है| बहलोल खां के मरने से मानसिंह को बहुत बड़ा झटका लगा तो उसने
शंख बजा के युद्ध रुकवा दिया और दोनों सेनाये अपने खेमों में वापस लौट गयी| इस
युद्ध में मानसिंह के 20000 मुग़ल सैनिक मरे गये थे| और महाराणा प्रताप के मात्र 500|
पर तब भी मुग़लों की सेना 60000 की थी और महाराणा प्रताप की 24500 की| अब अगला
युद्ध खुले मैदान में आमने सामने की लड़ाई
का था| 23 जून को यह युद्ध आरंभ हुआ महाराणा प्रताप ने अपना सीधा निशना मानसिंह को
बनाया पर मान सिंह के पास पहुँचने तक महाराणा प्रताप काफी घायल हो चुके थे| तब भी उन्होंने हार नहीं मानी और चेतक की लगाम कसी और
चेतक ने अपने सामने के दोनों पैर मानसिंह के हांथी पे रख दिए| अब महाराणा प्रताप
ने अपने भाले का ऐसा वार किया की मान सिंह नीचे गिर गया परन्तु मानसिंह के हाथी के
सूड़ में एक तलवार बंधी थी जिसे चेतक का एक पैर जख्मी हो गया था और महाराणा प्रताप भी काफी जख्मी हो चुके थे|| तब उनके एक सेनापति जो बिलकुल
महाराणा प्रताप की तरह दीखते थे उनका नाम था मान सिंह झाला उन्होंने महाराणा
प्रताप की राज छतरी अपने ऊपर ले ली और महाराणा प्रताप को युद्ध से यह बोल के निकल
दिया की आप जीवित रहेंगे तो स्वंत्रता की आस जीवित रहेगी| महाराणा प्रताप युद्ध से
निकल तो गये पर चेतक की हालत ठीक नहीं थी फिर भी उसने महाराणा प्रताप की रक्षा के
लिए 24 फीट लम्बा नाला एक ही छलांग में पर किया फिर वहा पे उसने अपना दम तोड़ दिया|
तभी वहां पे उनके भाई शक्ति सिंह (यह मुग़लों से मिल चुके थे पर मुगलों का छल देख
कर यह वापस महाराणा प्रताप के साथ मिल गये) और कहा कुछ मुग़ल सैनिक यहीं आ रहें है आप यह
मेरा घोडा ले जाइये और यहाँ से चले जाईये और वहां युद्ध में मुगलों ने मानसिंह
झाला को महाराणा प्रताप समझ के मार दिया| अब महाराणा प्रताप के पास अब नहीं धन था
नहीं सेना| ऐसी स्थिति मे उनका साथ भीलों ने दिया|
जब महाराणा प्रताप
जंगल जंगल भटक रहे थे और अपनी नई सेना का निर्माण कर रहे थे तो उस समय की एक कहानी
प्रसिद्ध है| उस समय की बात है, एक दिन महाराणा प्रताप की बेटी रमा कंवर रोटी खा
रही थी तभी एक बिल्ला आके वो रोटी छीन के ले गया| यह देख कर महाराणा प्रताप की
आँखों में आंसू आ गए और उन्होंने सोचा की मेरे कारण मेरे बच्चे और सारे मेवाड़
निवासी जंगल जंगल भटक रहे हैं इससे तो अच्छा है कि मै अकबर से संधि कर लूँ और उन्होंने एक संधि पत्र अकबर के पास दिल्ली
भेजा| जब यह पत्र दिल्ली पहुँचा तो सब चकित रहा गये| अकबर समेत सब को लगा की किसी
ने यह मजाक किया हे| क्योंकि कोई भी महाराणा प्रताप की हस्त लेखा को नहीं पहचानता
था| इसलिए अकबर ने पृथ्वी राज राठौर को वो पत्र दिखा के पूछा ये
महाराणा प्रताप का ही पत्र है या किसी ने मजाक किया है| वो पत्र देखते ही पृथ्वी राज राठौर पहचान गए कि यह पत्र महाराणा प्रताप ने ही लिखा था| उन्होंने अकबर से बोला
की वो अगले दिन इसका उत्तर दे पाएंगे | रात में उन्होंने दूत को एक पत्र
महाराणा प्रताप के नाम का पर देकर भगा दिया और दुसरे दिन अकबर को बोले की वो
पत्र महाराणा पत्र का लिखा नहीं था| पृथ्वी राज राठौर ने महाराणा को पत्र में ये लिखा कि आप ही
हम राजपुतों की आखरी आशा हैं आप अकबर से संधि ना करे| हम लोग मजबूर हैं इसलिए हम आप की सहायता नहीं कर सकते| पृथ्वी राज राठौर के पत्र को पढ़कर महाराणा को अत्यंत ग्लानी महसूस हुई और उन्होंने उसी समय प्रण लिया की मेवाड़ को वो किसी भी कीमत पर मुगलों से मुक्त कराएँगे|
तब इश्वर के रूप
में मेवाड़ के नगर सेठ भामाशाह वहां आये और महाराणा प्रताप को पचास लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी| महराणा प्रताप ने इससे एक नई सेना का निर्माण किया जिसमें भील सेनानी
प्रमुख थे और अपनी छापामार शैली की युद्ध नीति से
धीरे धीरे चित्तौड़गढ़ छोड़ के सम्पूर्ण मेवाड़ पर विजय प्राप्त कर लिया| 1597 में इनके दिल
के पास एक गहरा घाव था जो की भरा नहीं था| उसी की वजह से उनकि मृत्यु हो गयी| उनकि आखरी इच्छा को इनके पुत्र अमर सिंह ने पूरी की और बाद में चित्तौड़ जीत लिया|
इनकी मृत्यु के समय अकबर की भी आखों से आंसू निकल गए थे| तो ऐसा था महाराणा प्रताप
का व्यक्तित्व|
मै अपना यह ब्लॉग,
आज महाराणा प्रताप के जयंती के अवसर पे उनको श्रद्धांजलि के तौर पर अर्पित करता
हूँ|
महाराणा प्रताप के बारे में कुछ
खास बाते –
कुछ इतिहासकार
मानते हैं कि अकबर ने तो महाराणा प्रताप को हराया था पर महाराणा प्रताप ने अकबर को
कभी भी नहीं हराया| वास्तविकता में महाराणा प्रताप जिस हल्दी घाटी के युद्ध में
हारे उसके बाद उन्होंने ये समझ लिया था कि मुगलों से जीतने के लिए परंपरागत युद्ध शैली की जगह छापामार युद्ध शैली ही कामयाब रहेगी| इसके बाद उन्होंने मुगलों को
पहाड़ों और जंगलों में जिस में मुग़ल अक्सर भ्रमित हो जाते थे कई बार हराया जिससे मुगलों
का मनोबल टूटने लगा और अकबर भी दिल्ली में हमेशा इस पेशोपेश में रहा की बड़ी सेना
को युद्ध करने कहाँ भेजूं क्योंकि महाराणा प्रताप को कोई एक ठिकाना तो था नहीं |
अपने इसी उच्च मनोबल से और अकबर समेत पूरी मुग़ल सेना को हताश करके महाराणा प्रताप
ने हल्दी घाटी का युद्ध हारने के बाद कई युद्ध मुगलों से जीते और मेवाड़ को वापस
प्राप्त किया|
उनका भारतीय
इतिहास में इसलिए महत्व है कि उन्होंने अपना पूरा राज्य हारने के बाद फिर से न
केवल मेवाड़ को प्राप्त किया बल्कि अपने नागरिको की सुरक्षा के लिए उस समय के मेवाड़
की नयी राजधानी चावंड का निर्माण कराया (जहाँ से वो शासन करते थे) वो भी
ऐसे समय में जबकि उनके पास रहने के लिए छत भी नहीं थी| उनके संकट के समय में भी हार
ना मानने वाले, जुझारू व्यक्तित्व, मुश्किल समय में भी नेतृत्व करने की कुशलता,
वीरता और शौर्यता के साथ साथ अपने देश के नागरिकों के प्रति समर्पण उन्हें सबका
आदर्श बनाती है और इतिहास में महत्वपूर्ण दर्जा दिलाती है|
महाराणा प्रताप की
लम्बाई 7 फूट 10 इंच थी|
महाराणा प्रताप के
भाले का वजन 80 किलो था (इतना ही अकबर का वजन था) और वो युद्ध में दो तलवारे रखते
थे| हर एक का वजन 42 किलो था, अर्थात दोनों तलवारों का कुल वजन 84 किलो था| उनके कवच का वजन 72 किलो था| वो जो पीठ पे ढाल
रखते थे उसका वजन 100 किलो था| उनका मुकुट 10 किलो का था और पैर के एक जुते का वजन
5 किलो और कुल 10 किलो वजन था उनके दोनों जूतों का | इससे हमें यह पता चलता है कि
महाराणा प्रताप कुल 356 किलो का वजन लेके युद्ध करते थे|
महाराणा प्रताप भगवन श्री राम चन्द्र की तरह ही सूर्य वंशी राजा थे और उन्होंने
भी श्री राम की तरह वनवास भोगकर मेवाड़ राज्य फिर प्राप्त किया था इसिलए ऐसा कहा जाता है कि एक बार
गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं आकर महाराणा प्रताप से भेंट की थी |
|| महावीर महाराणा प्रताप की जय ||
धन्यवाद
09/05/2018
परम
कुमार
कक्षा ९
कृष्णा
पब्लिक स्कूल
रायपुर
महाराणा प्रताप की
फोटो गूगल के नीच दी गयी लिंक से ली गयी है|
http://bahadurbharat.blogspot.in/2015/05/blog-post.html