Sunday 24 May 2020

जय महाकाल 

नमस्कार दोस्तों !!

मैं आप सब का इस ब्लॉग में स्वागत करता  हूँ|

आप ने जब इस ब्लॉग का शीर्षक देखा होगा तो आप सब को लगा होगा की यह तो पुरानी पिक्चर का नाम  है| पर दोस्तों हमारा आज का ब्लॉग भारत के उन वीर साधुओं के ऊपर है जिन्होने अपने प्राणों की बाजी लगते हुए भारत के कई मंदिरों और हिन्दू धर्म की रक्षा की| अब आप सब में से कई लोगों के दिमाग में भगवान परशुराम का भी नाम आया होगा| तो दोस्तों आपके दिमाग में लगभग सही नाम आया है| पर यह ब्लॉग भगवान परशुराम के ऊपर नहीं बल्कि उनकी आराधना करने वाले साधुओं की प्रजाति नागा साधुओं के ऊपर है| इन्ही नागा साधुओं ने समय-समय पर कभी मोहम्मद गजनवी को तो कभी शाहजहाँ और औरंगजेब जैसे कई मुग़लों और अन्य अत्याचारी मुस्लिम राजाओं से भारत के मंदिरों और हिंदु धर्म की रक्षा की है| पर हमारा देश इन वीरों के बलिदान को भुला चुका है और जो देश अपने ही वीरों और योद्धाओं को भुला दे और किसी और देश की संस्कृति और लोगों के पीछे जाये उस देश की वास्तविक संस्कृति धीरे धीरे धूमिल होने लगती है| अतः जो लोग भी इस ब्लॉग को पढ़ रहें हैं उन सब से मेरा एक ही अनुरोध है की आप सब लोग इस ब्लॉग को जादा से जादा शेयर करें| चलिये तो आज के ब्लॉग को शुरू करते हैं|

दोस्तों नागा साधुओं की उत्पत्ति को लेकर बहुत से किस्से-कहानियाँ और किताबें हैं| पर उनमें से जो सबसे सही है, हम उस पर चर्चा करते हैं| पूर्व काल में 5वी इसा पूर्व में आदि शंकराचार्य का उध्भव हुआ जिन्होने होने सनातन-धर्म की स्थापना की और हिन्दू धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए विभिन्न अखाड़े भी बनाए| उस समय भारत पर बहुत से विदेशी आक्रमण हुए जिससे भारत के बहुत से मंदिरों और धर्म स्थलों की बहुत क्षति हुई| इन आक्रमणों से मंदिरों और धर्म स्थलों की रक्षा हेतु आदि शंकराचार्य ने नागा साधुओं के विभिन्न अखाड़ों की स्थापना की जिनका धर्म था मंदिरों और धर्म स्थलों की रक्षा हेतु युद्ध करना | इनके इन अखाड़ों के नाम इस प्रकार हैं-

1.      निरंजनी अखाड़ा
2.      जूना अखाड़ा
3.      महानिरवाणी अखाड़ा


https://www.paramkumar.in/
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इन अखाड़ों के वीरों का जिक्र हमें भारत के बहुत कम इतिहासकारों की पुस्तकों में मिलेगा पर अगर हम दूसरे देशों की बात करें तो वहाँ पे इनके बारे में भारत से भी अधिक और सटीक जानकारी मिलेगी| मैं यह नहीं कह रहा कि भारत के इतिहासकार गलत हैं, मैं बस एक बात बता रहा हूँ कि कुछ ऐसी घटनायें हैं, जो हैं तो भारत के वीरों के बारे में पर उन घटनाओं के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध होने के कारण हमारे देश में लोग नहीं जानते| आज के इस ब्लॉग में हम महानिरवाणी अखाड़ा के वीर नागा साधुओं के बारे में बात करेंगे| जिन्होंने काशी विश्वनाथ के मंदिर को बचाते हुये अपने प्राणो की आहुति दे दी और 17 वी सदी के भारत के सब से बड़े गैर-भारतीय, मुग़ल बादशाह आलमगीर औरंगजेब को तीन बार धूल चटा दी थी| तो आइये जाने किस तरह इस युद्ध का आरंभ हुआ|

हम लोग जिस समय की बात कर रहें उस समय पूरे भारत में केवल तीन ही शक्तियाँ थी जो मुग़लों से लोहा ले सकती थी| एक राजपूत, दूसरे जाट और तीसरे मराठा| इस समय अधिकांश भारत पर औरंगजेब की हुकूमत थी| उसने मुग़लों के राज को उस ऊंचाइयों पर पहुंचाया जहाँ पर कोई मुग़ल बादशाह न ले जा सका था और अपने इस राज्य को और सुद्रढ़ करने के लिए और भारत में अपने नाम का डर पैदा करने के लिए उसने भारत के हिन्दू मंदिरों और धर्म स्थलों को तोड़ना शुरू किया| औरंगजेब के भी पूर्व बहुत से मुग़ल बादशाहों ने भी ऐसा किया था| ऐसा कहा जाता है कि मुग़लों ने भारत में लगभग 10000 हिन्दू मंदिर तोड़े थे| औरंगजेब ने भी इसी राह पर चलते हुए मथुरा का प्रसिद्ध कृष्ण जन्म मंदिर सहित कई मंदिरों को अपना निशाना बनाया था| सन 1664 से 1669 तक औरंगजेब ने शिव मंदिरों को अपना निशाना बनाया, और इसकी शुरुवात उसने काशी विश्वनाथ के मंदिर से करने की ठानी| काशी विश्वनाथ को अपना निशाना बनाने की एक वजह यह हो सकती है की यह आगरा और दिल्ली दोनों से ही बहुत अधिक दूरी पर नहीं है| औरंगजेब ने ऐसा इसलिये किया क्योंकि काशी विश्वनाथ का मंदिर उसकी ही राज्य की सीमा के अंदर भी आता था| पर उसे पता नहीं था की उसे अपने ही राज्य में स्थित मंदिर को तोड़ने के लिए अपने 5 लाख सिपाही और 3 मंत्रियों की कुर्बानी के साथ अपनी 3 बार बेईज्जती करानी पड़ेगी| इस युद्ध का आरंभ कुछ इस प्रकार हुया था| सन 1664 में औरंगजेब अपने मंत्री मिर्जा अली के साथ काशी विश्वनाथ के मंदिर को तोड़ने के लिए निकला| महानिरवाणी अखाड़ा के नागा साधू वहीं पे निवास करते थे| इन्हे जब यह सूचना मिली तो उन लोगों ने यह सौगंध ली की जब तक एक भी नागा साधू जीवित रहेगा तब तक मुग़ल इस मंदिर में प्रवेश भी नहीं कर सकेंगे| 25 मार्च को मुग़ल अपनी विशाल फौज के साथ काशी (बनारस) पहुंचे| जहाँ पे उनके ही राज्य में कुछ डरावनी वेश भूषा वाले, बड़े-बड़े बालों और दाढ़ी-मूंछ वाले डरावने लोग बदन पर राख लपटे हुए खड़े थे| यह लोग नागा साधू थे जो हाथों में त्रिशूल, तलवार, भाले और दूसरे शस्त्र लिए खड़े थे| इन लोगों को देख मुग़लों में डर बैठ गया| जी. येल. स्मिथ की किताब के अनुसार कई मुग़ल सैनिक इनसे भयभीत हो युद्ध से भाग गए| इसके पश्चात कुछ समय बाद औरंगजेब ने युद्ध का आदेश दिया| युद्ध आरंभ होते ही मुग़लों पे कहर ही बरस गया| महानिरवाणी अखाडे के नागा साधुओं ने ऐसा युद्ध किया कि मुग़ल सेना के होश और जोश दोनों ढीले पड गये| कुछ मुग़ल सैनिकों ने बताया की यह लोग बिजली की गति से दौड़ते थे और एक बार में 20-20 सैनिकों को मार देते थे और युद्ध के दौरान जिस जगह मुग़ल सैनिक खड़े थे उस जगह 5 से 6 बार बिजली गिरी थी| जिस की वजह से औरंगजेब हाथी से गिर गया और युद्ध से भाग गया और युद्ध में एक नागा साधू ने उसके सेनापति मिर्ज़ा अली को मार दिया| इस प्रकार मुग़लों की उनके ही राज्य की सीमा में शर्मनाक हार हुयी| पर इस हार से औरंगजेब ने सीख नहीं ली और 1666 में एक बार फिर अपनी मुग़ल सेना और मंत्री तुरंगखान के साथ काशी की ओर एक बार फिर बढ़ा और फिर एक और भयानक युद्ध हुआ| इस युद्ध में भी औरंगजेब की हार हुई और वो युद्ध भूमि से भाग गया| वो यहाँ भी नहीं रुका| वो एक बार फिर 1668 में मंत्री अब्दुल अली के साथ युद्ध में आया और फिर से पूर्व के युद्धों की तरह नागा साधुओं से युद्ध में हार गया और नागा साधुओं ने उसकी सेना और मंत्री का अंत कर दिया| इस हार के बाद उसने एक आखरी युद्ध की तैयारी की| 1669 में वो जितने भी अत्याचारी मुस्लिम शासकों अपनी तरफ कर सकता था उसने किया और 3 लाख की फौज के साथ 29 अप्रैल 1669 को नागा साधुओं के ऊपर टूट पड़ा| इस युद्ध में मात्र 40000 नागा साधुओं ने मुग़लों की दुर्गति कर दी पर इस बार भी वो जीत ना सके पर इस युद्ध में केवल औरंग्जेब और उसके 70 सिपाही बच सके थे| औरंगजेब ने जब मंदिर तोड़ने की सोची तो उसे भारत के कई हिन्दू राजाओं से युद्ध के संदेश प्राप्त हुए और इस समय मुग़ल और युद्ध करने की स्थिति में नहीं थे| इसलिए उसने मंदिर ना तोड़के मंदिर के अंदर ही मस्जिद का निर्माण करवा दिया| औरंगजेब की मृत्यु के बाद उदयपुर के महारणा संग्राम सिंह द्वितीय ने जयपुर के कछवाहों के साथ मिलकर सन 1711 में काशी विश्वनाथ की जमीन खरीदी और मंदिर का पुनः निर्माण करवाके मंदिर के प्रांगण को मस्जिद से अलग करवा दिया|
  
   दोस्तों तो यह थी गाथा भारत के वीर नागा साधुओं की और मेरे आगे आने वाले ब्लॉग भी इन्ही वीरों के ऊपर केन्द्रित रहेंगे| आपको इन वीरों के बारे में भारत के इतिहासकारों की किताबों से थोडी कम जानकारी मिलेगी और भारत के जो इतिहासकार इनकी जानकारी दे सकतें हैं वो उतने प्रचलित नहीं हैं| औरंग्जेब और कई शासकों ने अपनी हार के भी सबूत मिटा दिये थे| इसलिए इन घटनाओ के वास्तविक तथ्यों की उतनी जानकारी नहीं मिलती| ऊपर दी गयी जानकारी आर॰ विलियम॰ पिंच की किताब “SOLDIER MONK AND MILITANT SADHUS” से ली गयी है| इस ब्लॉग को अधिक से अधिक शेयर करें ताकि लोग भारत के इन वीर नागा साधुओं के बारे में जान सकें|

आप अपनी राय कमेंट में लिख सकतें हैं या मेरे ई-मेल paramkumar1540@gmail.com पर या फिर व्हाट्सप्प  +91-7999846814 पर संपर्क कर सकते हैं|

                          ||जय महाकाल||
                           ||जय भारत||
24/05/2020
                                                                                    परम कुमार                                             कृष्णा पब्लिक स्कूल                                          रायपुर (छ.ग.)
ऊपर दिया गया चित्र इस लिंक से लिया गया है-
https://www.hinduhistory.info/wp-content/uploads/2012/11/naga_sadhus_14_jan_dip_TOI_Gautam_Singh.jpg 

Sunday 17 May 2020


जय महाकाल

नमस्कार दोस्तों !!!

आपका मेरे ब्लॉग में स्वागत है, हमारे आज की चर्चा का विषय भारत के अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहे चुके एक योद्धा के ऊपर है| अब आप सबके दिमाग में बहुत से नाम आये होंगे, तो चलिए आपके लिए उस वी के ऊपर लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ लिख देता हूँ, जिससे आप समझ जायेंगे की यह ब्लॉग किसके ऊपर है

      “चमक उठी सन सतावन में वो तलवार पुरानी थी
       
      गुमी हुई आजादी की कीमत सब ने पहचानी थी

      दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी
    
      खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी”

सुभद्रा कुमारी चौहान की इस कविता से आप सब तो समझ ही गए होंगे की हमारा आज का ब्लॉग  वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई जिन्हें लोग झाँसी की रानी के नाम से भी जानते हैं उनके ऊपर है| इस ब्लॉग में हम उनके जीवन संघर्ष और उनके बलिदान इत्यादि के बारे मैं चर्चा करेंगे|  

इतिहासकारों में इनके जन्म को लेके बहुत मतभेद हैं| कुछ इतिहासकारों का मानना है की रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 18 नवम्बर 1828 मैं हुआ था और कुछ का मानना है की इनका जन्म 28 नवम्बर 1828 मैं हुआ था| परन्तु इनका जन्म कभी भी हुआ हो वो इनके एतिहासिक महत्व को कम नहीं कर सकता है| अगर हम रानी लक्ष्मीबाई के जीवन का और गहरा अध्यन करें तो हमे पता चलेगा की रानी लक्ष्मीबाई वास्तव में मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई की पुत्री थी हीं नहीं क्योंकि कई इतिहासकारों का एसा मानना है की एक बार जब मोरोपंत तांबे काशी (बनारस) के घाट पे पूजा कर रहे थे तब उन्हें रानी लक्ष्मीबाई मिली थी, जिनका नाम उन्होंने मणिकर्णिका रखा था और बिठुर के पेशवा उन्हें मनु बुलाते थे| रानी लक्ष्मीबाई के पिता काशी के उच्च न्यायलय में मुख्य न्यायाधीश थे और बिठुर के पेशवा उनके पुराने मित्र थे| क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई के पिता एक उच्च पद पर थे इसलिए उनकी शिक्षा आदि दूसरी कन्यों से अलग थी| उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी आदि युद्ध कलाओं की भी शिक्षा ली थी| रानी लक्ष्मी बाई में बचपन से ही स्वाधीनता की मशाल धड़कती थी, क्योंकि इन्होने अंग्रेजों का अत्याचार देखा था| पर उसके विरुद्ध वो कुछ कर नहीं पातीं थी| पर कुछ करने का मौका उन्हें जल्दी ही मिलने वाला था| आईये तो जानते हैं की किस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी मैं तय हुआ| उसके पूर्व यह जान लेना उचित है की झाँसी पर मराठा हुकूमत कैसे स्थापित हुई थी| पूर्व समय में झाँसी बुंदेलखंड का हिस्सा था| जब पेशवा बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल बुंदेला की सहायता की थी मोहम्द बंगश के विरुद्ध तब उन्होंने अपनी पुत्री मस्तानी का हाथ बाजीराव को सोंप दिया था| उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी वसीयत के अनुसार बुंदेलखंड के तीन हिस्से हुए थे| उसमें उत्तर का हिस्सा जिसकी सालाना आ 1 करोड़ थी उन्होंने बाजीराव के नाम कर दिया था| इसके बाद बाजीराव ने अपनी मृत्य के पूर्व उस हिस्से की जिसकी आ 1 करोड़ थी दो और हिस्से किये जिसमें सालाना 80 लाख आये वाला हिस्सा उन्होंने मस्तानी के पुत्र शमशेर बहादुर को दिया और बचा 20 लाख वाला हिस्सा मराठा साम्राज्य को दिया| पानीपत के युद्ध के बाद शमशेर बहादुर (युद्ध मैं शमसेर बहादुर की मृत्यु हो गयी) का हिस्सा मराठा साम्राज्य में मिल गया और इस हिस्से की रक्षा के लिए पेशवा बाजीराव द्वित्य ने इसे नेवलेकर राजघराने को सोंप दिया| इसी राजघराने में गंगाधर राव का जन्म 1797 मैं हुआ था| रानी लक्ष्मीबाई और महाराज गंगाधर राव की उम्र में बहुत बड़ा अंतर था| कई इतिहासकारों की मानें तो गंगाधर राव का पूर्व समय में भी एक विवाह हो चुका था परन्तु किसी कारण वश उनकी पहली पत्नी की मृत्यु हो गयी और उनकी माँ के आग्रह पर उनके दुसरे विवाह की तयारी हुई| गंगाधर राव कड़हाडे ब्राह्मण थे इसलिए उनका विवाह भी इसी कड़हाडे ब्राह्मण समाज मैं ही हो सकता था| उधर लक्ष्मी बाई भी 14 वर्ष की हो गयी थी और उनके लिए भी योग्य वर की तलाश की जा रही थी| लक्ष्मीबाई भी कड़हाडे ब्राह्मण थी इसलिए उनका विवाह भी कड़हाडे ब्राह्मण समाज मैं ही हो सकता था| बिठुर के पेशवा झाँसी के भी मित्र थे और मोरोपंत तांबे के भी, दोनों ने ही अपने अपनी संतानों के लिए पुरा उत्तर छान लिया था पर कोई कड़हाडे ब्राह्मण नहीं मिला था फिर एक दिन दोनों एक ही समय पर संजोग से बिठुर के पेशवा के यहाँ मिले और बिठुर के पेशवा नारायराव द्वित्य ने दोनों का परिचय करवाया और दोनों की तरफ से शादी का प्रस्ताव रखा गया और इस तरह से 14 वर्ष की छोटी सी उम्र मैं लक्ष्मीबाई का विवाह तय हुआ| उस समय मान्यता थी की अगर किसी कन्या का विवाह 10 से 15 वर्ष के बीच में ना हो तो उसके यहाँ जन्म लेने वाली 42 पीढ़ी नर्क में जाएँगी| इस तरह से 19 मई 1842 को लक्ष्मीबाई का विवाह संपन हुआ| शादी के दौरान ही उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला था| शादी के पूर्व उनका नाम मणिकर्णिका था| उस समय यह रिवाज़ था की शादी के बाद राजघराने में बहु को एक नया नाम दिया जाता था| यहाँ से प्रारंभ होता है झाँसी की रानी यानि लक्ष्मीबाई के जीवन का दूसरा अध्याय| हम जिस समय की बात कर रहें हैं उस समय भारत के अधिकांश भूभाग पर अंग्रेजों का शासन था| अब आप सोच रहे होंगे की मैं यह क्या बोल रहा हूँ अंग्रेजों का तो पूरे भारत प राज था| यह सत्य नही है, अंग्रेज यह कहते थे क्योंकि उनका दिल्ली प राज था| इसके अलावा तत्कालीन राजस्थान, कर्णाटक, नेपाल और भारत के पूर्व राज्यों से उन्हें सालों के युद्ध के पश्चात् संधि करनी पड़ी थी| परन्तु झाँसी में एसा नहीं था| 1818 मैं तीसरे अंगोल-मराठा युद्ध में मराठों की हार के बाद अधिकांश भारत पे अंग्रेजों का शासन था| झाँसी ने अपने आप को बचाने के लिए अंग्रेजों से कुछ शर्तों पर संधि की थीं| पर अंग्रेज हुकूमत इस संधि से खुश नहीं थी, वो झाँसी पे पूर्ण अधिकार चाहती थी| फिर सन 1848 मैं जनरल डलहौजी भारत के नये गवर्नर जनरल बने और उन्होंने चूक का सिधान्त नाम की नीती अपनाई जिसे डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स भी कहते हैं और इसके अनुसार अगर कोई राजा जो बिना पुत्र के मृत्यु को प्राप्त होता है उसका राज्य अंग्रेज शान के पास चला जाये गा| ऐसा ही झाँसी के साथ भी हुआ| सन 1851 मैं मात्र 4 माह की उम्र में उनके(रानी लक्ष्मीबाई) पुत्र की मृत्यु हो गयी, परन्तु झाँसी अभी अंग्रेजों के अधिपत्य में नहीं गयी थी क्योंकि अभी महाराज गंगाधर राव जीवीत थे| उनका एक भाई भी था जिसका नाम था शिवराव| उसको दो जुड़वा पुत्रों की प्राप्ति हुई थी| उसने अपने भाई के राज्य को बचाने के लिए अपने एक पुत्र को अपने बड़े भाई को देने का सोचा| इसके पीछे उसका अपना कोई भी स्वार्थ नहीं था| मैं ऐसा इस इए लिख रहा हूँ क्योंकि 2019 मैं प्रकाशित फिल्म मणिकर्णिका में बताया गया था की इसके पीछे उसका स्वार्थ था और रानी लक्ष्मी बाई किसी और मंत्री के पुत्र को अपना लेती हैं| ऐसा नहीं था शिवराव एक देशभक्त थे पर उनके बारे में इतिहास मैं कोई जानकारी नहीं मिलती है| यह सारी घटना अंग्रेजों से छुप के हुई थी पर किसी व्यक्ति ने यह सारी बातें अंग्रेजों को बता दीन थी| पर अंग्रेजों ने कुछ न किया वो तो किसी मौके की तलाश मैं थे| उन्हें यह मौका 17 नवम्बर 1853  मैं मिला जब एक रात अचानक ही झाँसी नरेश गंगाधर नेवलकर की मृत्यु हो गयी और झाँसी के ऊपर अपना अधिकार सिद्ध करने के लिए अंग्रेजों के पास अब सब रस्ते खुले थे| रात ही रात मैं दामोदर राव का राज्याभिषेक कर दिया गया और उनके बालिग होने तक राज काज झाँसी की रानी को सोंप दिया गया| दूसरे दिन महाराज के अंतिम संस्कार के बाद झाँसी की रानी से मिलने के लिए अंग्रेज आये और उनसे कहा की आप झाँसी से चले जाएँ और हम जो रूपए आप को देंगे उससे अपना खर्च चलायें| झाँसी की रानी ने अपना पक्ष भी रखा की दामोदर राव उनका ही पुत्र है पर अंग्रेजों ने उन्हें बताया की उन्हें पता है की दामोदर राव शिव राव का पुत्र है इस लिए उचित यह ही होगा की वो झाँसी से चले जाएँ| लक्ष्मी बाई ने इससे इंकार कर दिया तब, अंग्रेज जनरल हुगरोज ने उन्हें युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा| इस युद्ध मे दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ने अपने तोपची इस्माइल खान जिसे कई जगह बहादुर शेख भी कहा जाता है झाँसी की रानी की मदद के लिए भेजा| 21 नवम्बर 1853  मैं युद्ध आरम्भ हुआ| एक तरफ झाँसी के वीर योद्धा तो दूसरी और अंग्रेजी विशाल फ़ौज| लगातार 6 दिन तक युद्ध चला फिर एक रात अंग्रेजों ने रात मैं ही आक्रमण कर दिया| झाँसी इस आक्रमण को झेल न सका| किले के दरवाजें खुल गए और अंग्रेजी सेना अन्दर आ गयी तब झाँसी की रानी और उनके बेटे दामोदर राव को महल से भगाने के लिए झलकारी बाई जो की बिलकुल झाँसी की रानी के जैसी दिखती थी उन्होंने अंग्रेजों से युद्ध किया और वीर गति को प्राप्त हुईं| उस समय के समय मैं शल्य चिकित्सा से राजा और रानी की रक्षा हेतु उनके एक या दो हमशकल सैनिक तैयार किये जाते थे| रानी लक्ष्मीबाई किले से अपने घोड़े के साथ कूद गयीं और घोड़े की सहायता से ग्वालियर से 17 किलोमीटर उस जगह पहुँची जहाँ तात्या टोपे थे| वहां पे इनका इलाज किया गया पर उनका घोड़ा जीवित नहीं रह सका| उस समय पूरे भारत में स्वतंत्रता का बिगुल बज रहा था और इसका श्रेय मंगल पाण्डेय को जाता है जिन्होंने स्वंतंत्रता का युद्ध शुरू कर दिया था| सन 1853 से लेक सन 1857 तक झाँसी की रानी ने क्या किया इसको लेकर हर इतिहासकारों की अपनी-अपनी एक अलग मान्यता है और इस पर अभी भी चर्चा होती रहती है की इन बीते सालों मैं झाँसी की रानी ने क्या किया? कई इतिहास करों का मानना है की इन बीते सालों मैं झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों से कई छोटे छोटे युद्ध लाडे| कई इतिहासकारों का मानना है की उस समय एक व्यक्ति था जो की रणबाकुरा के नाम से विख्यात था| जिसने अंग्रेजों को बहुत क्षति भी पहुँचाई थी| वो दिखने मैं एक स्त्री के जैसा था और उसकी चाल ढाल भी वेसी ही थी, तो कई लोगों ने निष्कर्ष निकला की वो कोई और नहीं बलकी झाँसी की रानी थी, पर इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है| उनके इस कठिन समय में ग्वालियर नरेश जयजिराव सिंधिया ने इनकी पुरी और हर प्रकार से मदद की थी| कई लोग इनप यह लान्छन लगाते हैं की यह लोग अंग्रेजों से मिले थे पर यह झूठ है| इसका जिक्र मैं महादजी सिंधिया वाले ब्लॉग मैं कर चुका हूँ| इन बीते सालों में क्या हुआ इसके ऊपर हर इतिहासकार की अपनी एक राय है| इन बीते सालों में एक चीज यह हुई थी की झाँसी की रानी ने ग्वालियर के सिंधिया की सहायता से अपनी सेना बना ली थी| पर उधर अंग्रेजों ने भी 1857 की क्रांति को विफल कर दिया था| इधर झाँसी की रानी अब अकेली हो चुकीं थी| अब उन्होंने 1858 को अंग्रेजों से निर्णायक युद्ध करने की ठानी और 18 जून 1858 मैं अंग्रेजों और मराठा सैनिकों के बीच घमासान युद्ध हुआ| युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई बहुत घायल हो गयीं और युद्ध छेत्र से लगभग 17 किलोमीटर दूर ग्वालियर के पास एक झोपड़ी मैं अपने प्राण त्याग दिए और एक पंडित से उस झोपडी मैं आग लग्वा दी| इस तरह से अंग्रेज उन्हें जीवित अथवा मृत  नहीं पकड़ पाए| और भारत का नाम इस वीरांगना ने सदा के लिए अमर कर दिया| मैं नमन कर ता हूँ इसी वीर स्त्री को जिसने इतिहास में पुरषों के बीच अपनी जगह बनायीं|

मेरा आप सभी से एक ही निवेदन है इस ब्लॉग को शेयर करें ताकि और लोग झाँसी की रानी के बारे मैं जान सकें| अगर आप की कोई राय है तो वो आप हमें कमेंट कर सकतें है या फिर भेज सकते हैं paramkumar1540@gmail.com पर या फिर हमारे व्हात्साप नंबर 7999846814 पर|  

ऊपर दी गयी समस्त जानकारी वृन्दावन लाल वर्मा तथा प्रतिभा रानडे की पुस्तकों से मुख्य तौर पे ली गयी है| इस के अलावा ऊपर दी जानकारी को INSCRIBING THE RANI OF JHANSI IN COLONIAL “MUTINITY” FICTION से भी लिया गया है|

17/05/2020
                                                                              परम कुमार
                        कृष्णा पब्लिक स्कूल
                        रायपुर (छ.ग.)

ऊपर दिया गया चित्र इस लिंक से लिया गया है-




Saturday 9 May 2020


जय महाकाल
नमस्कार दोस्तों

आप सब का मेरे ब्लॉग में स्वागत है| आज हमारे चर्चा का विषय भारत के उस वीर योद्धा के ऊपर है जिसने अपने साथ साथ भारत और मराठा साम्राज्य का नाम विश्व में अमर कर दिया और जिसे महान इतिहासकार जेम्स मिल ने अपनी किताब में भारत का सर्वोच्च अधिपति कहा है| जिसने पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद लोगों को यह बता दिया था कि मराठा साम्राज्य में अभी भी इतनी शक्ति है की वो किसी से भी लोहा ले सकते हैं| इस वीर ने एक बार फिर से कटक से लेकर अत्तोक तक मराठा साम्राज्य का झंडा लहरा दिया था| दोस्तों में बात कर रहा हूँ सिंधिया राजवंश के गौरव महादजी सिंधिया की| आज के इस ब्लॉग में आप को महादजी के बारे में तो बताऊंगा ही और यह भी बताऊंगा कि सिंधिया राजवंश के ऊपर झाँसी की रानी के साथ जो धोखा करने का जो आरोप है वो बे-बुनियाद है|  आइये तो जाने महादजी सिंधिया के बारे में|

महादजी सिंधिया का जन्म सन 1730 में ग्वालियर में हुआ था| इनके पिता का नाम राणोजी सिंधिया था और माता का चीमा बाई| इसके अलावा महादजी सिंधिया के चार भाई भी थे| दुत्ताजी, जनकोजी, जयापाजी,और तुकोजी| महादजी सिंधिया के बारे में बोला जाता है कि इन्होने अपना सबसे पहला युद्ध तब लड़ा था जब वो दस साल के थे| महादजी सिंधिया ने पनीपत की तीसरी लड़ाई में भी अपना उपयोगी योगदान दिया था| अगर आप सब पानीपत के इस युद्ध के बारे में और जानकारी चाहते हैं तो हमारी वेबसाइट पर जा सकते हैं| पानीपत के युद्ध में जिन्दा बचे लोगों की सूचि में जो महत्वपूर्ण दो नाम आते हैं वे हैं महादजी सिंधिया और नाना फड़नवीस| इन दोनों के ही जीवित रहने के दो कारण है| पहले हम जानते हैं की नाना फड़नवीस जीवित कैसे बचे|

नाना फड़नवीस अफगानों की विशाल सेना को देखकर भयभीत हो गया था और युद्ध शुरू होने के पहले ही भाग गया था| पर ऐसा नहीं है कि यह व्यक्ति वीर नहीं था हम इसके वीरता के बारे आगे बात करेंगे| तो अब हम बात करते है की महादजी इस युद्ध में कैसे बचे| महादजी इस युद्ध से भागे नहीं थे बल्कि वीरता के साथ युद्ध किया और अहमद शाह के मंत्री शाह अब्दुला को मार दिया था| जेम्स मिल की किताब के अनुसार महादजी इस युद्ध से बहुत ही लहू लुहान अवस्था में थोड़ी दूर जाकर बेहोश हो गए थे| तब साहिर खान नामक एक व्यक्ति ने उनका उचित उपचार करवाया था| यहाँ महादजी तो ठीक हो गए पर पुणे में उनसे उनकी पूरी जायदाद छीन ली गयी| यह घटना कुछ इस प्रकार हुई| सन 1764 ई. में ही जब मराठों को यह सूचना मिली की मरने वालों में महादजी भी जिन्दा हैं और वो वापस नहीं आये तो सब को लगा कि वो युद्ध के पहले ही भाग गए थे| इस गलत फहमीं में आकर तत्कालीन पेशवा बालाजी बाजीराव ने उनसे उनका ओहदा छीन लिया और सब जगह यह घोषणा करवा दी कि महादजी एक दगाबाज है और वो इस सिंधिया वंश के नहीं हैं जिसके 5 वीरों ने भारत की रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिए थे| यह खबर महादजी तक भी पहुच चुकी थी और उन्होंने कसम खायी की जब तक वो पेशवा दरबार जाने के लिए सशक्त नहीं हो जाते तब तक वो न तो ग्वालियर जायेंगे नहीं पुणे| अब यहाँ से शुरू होता है महादजी के जीवन का दूसरा अध्याय|

महादजी को अपनी सेना बनाने में 4 साल लग गए थे| इन चार सालों में उन्होंने चंदा मांग मांग कर और साहिर खान की मदद से अपनी सेना दिल्ली के पास के एक छोटे से गाँव में इकट्ठा की थी पुरे भारत वर्ष से छुपकर| पर इन बीते चार सालों में सिंधिया जायदाद को हड़पने की बहुत कोशिशें हुई पर कोई इन में कामियाब नहीं हुआ| उन कोशिशों में से एक का जिक्र मैं आप सब से करता हूँ| पेशवा दरबार में एक बड़ा ही लालची व्यक्ति था जिसका नाम था जन्गेस्वर राव| उसने उस ज़माने में अपने बेटे की शल्य चिकित्त्सा  (प्लास्टिक सर्जरी) करवाई थी जिससे वो दिखने में महादजी के बारे भाई जनकोजी जैसा दिखने लगा क्योंकि उसकी कद काठी भी वैसी ही थी| इसलिए किसी को शक भी नहीं हुआ परन्तु पेशवा बालाजी बाजीराव जान गए की यह जनकोजी नहीं हैं क्योंकि अगर यह जनकोजी होते तो यह सबसे पहले जय भवानी बोलते जो कि वो हमेशा पेशवा दरबार में आकर करते थे और जन्गेस्वर राव की नियुक्ति पेशवा दरबार में पानीपत के युद्ध के बाद हुई थी इसलिए वो इस बात को नहीं जानता था| जन्गेस्वर राव के इस कृत्य के लिए उसके पुत्र और उसे 15 वर्षों की कैद की सजा दे दी| उधर महादजी ने भी अपनी सेना बना ली थी और फिर 1768 ई में अप्रैल में वो पहले ग्वालियर के लिए रवाना हुए और अप्रैल अंत तक ग्वालियर पहुंचे और सबसे पहले अपनी माँ से मिले| इसके पश्चात् उन्होंने पुणे अपना सन्देश भिजवाया| परन्तु बालाजी बाजीराव का निधन हो चूका था उनका अबोध बालक सवाई माधवराव अपनी माँ के संरक्षण मे नए पेशवा बने थे| पर जब यह खबर मिली की महादजी अपनी सेना के साथ पुणे आ रहे हैं तो सब को लगा की वो आक्रमण करने आ रहे हैं परन्तु असलियत यह थी की वो पेशवा के तरफ अपना वफ़ादारी का तोहफा देने आ रहे थे| फिर जब यह बात पेशवा मंत्री मंडल को पता चली तो वो महादजी से मिलने को तैयार हुए| महादजी ने अपनी वफादारी का तोहफा पेशवा के सामने पेश किया और मराठा साम्राज्य को पुनः स्थापित करने का बीड़ा उठाया| जब यह बात भारत के अन्य राजाओं को पता चली तो उसमे से अधिकतर तो मराठा साम्रज्य का पुनः हिस्सा बन गए परन्तु अत्तोक से लेके कटक तक बिच में दो दिक्कतें थी पहले राजपुताना दूसरा दिल्ली| पानीपत की तीसरी लडाई के बाद सन 1765 ई. में रोहिलाखंड के सरदार नाजीबुद्दौल्ह ने दिल्ली पे अधिकार कर लिया था और बादशाह शाहआलम को अपना बंदी बना लिया था| सन 1770 में उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र ज़ब्त खान का राज्य था| महादजी ने मुग़लों को वापस स्थापित करने का बीड़ा उठाया और दिल्ली के युद्ध में 29 अक्टूबर 1770 ई को दिल्ली पुनः हासिल कर लिया और ज़ब्त खान खान युद्ध से भाग निकला| इस बहादुरी से खुश होकर बादशाह शाहआलम ने उन्हे वकील-उल-मुल्क का और आमिर-उल-उमार का ख़िताब भी दिया| अब रही बात राजपूतों की तो मराठों ने राजपूतों की शर्तों पे उनसे संधि कर ली| सब कुछ ठीक था फिर सन 1773 ई. में सवाई माधवराव का निधन हो गया| इस के पश्चात उनके छोटे भाई नारायणराव द्वितीय को नया पेशवा बना दिया गया| परन्तु 26 जुलाई को नारायण राव के चाचा रघुनाथरव ने उसका वध कर दिया ताकि वो पेशवा बन सके| पर हुआ ठीक इसका उल्टा हुआ मराठा साम्राज्य ने रघुनाथ राव का तिरस्कार कर दिया| इस समय केवल अंग्रेज ही थे जो उसकी सहयता कर सकते थे| उसने अंग्रेजों को कहा की महादजी उनसे युद्ध करने आ रहा है| क्योंकि बीते सालों में अंग्रेजों ने भारत के बहुत से राज्य जीत लिए थे और इस तरह से चालू हुआ पहला अंगोल-मराठा युद्ध जो 1774 से 1782 ई तक चला जिसमें अंत में विजय महादजी की हुई| युद्ध के बीच में वारेन हेस्टिंग ने ग्वालियर को भी 2 दिन के लिए अधिकार कर लिया था पर अंत में महादजी ने फिर ग्वालियर जीत लिया| युद्ध के अंत में अंग्रेजों को हर्जाने के रूप में 49000 सोने के सिक्के देने पड़े और रघुनाथ राव ने ग्लानी के चलते अताम्ह्त्या कर ली| परन्तु दोस्तों ऐसे वीर की मृत्यु अत्यंत ही दुख दायक थी| दिल्ली, अंग्रेजों, ग्वालियर अदि विजय से कुछ मराठा सरदारों को लगने लगा की कहीं अब महादजी में पेशवा बनने की चाहत तो नहीं है| बहुत से लोगों ने इस का विरोध भी किया| पर यह बात पता नहीं कैसे अंग्रेजों तक भी पहुँच गयी और उन्होंने महादजी से बदला लेने के लिए  अष्ठ प्रधान (पेशवा की रक्षा करने के लिए आठ मंत्रिओं का एक दल बनाया गया था) जिसके प्रधान नाना फड़नवीस थे और यह लोग पेशवा की रक्षा के हित में कोई भी निर्णय ले सकते थे| इसकी रचना और गठन नाना फड़नवीस ने ही किया था, क्योंकि पहले ही मराठा साम्राज्य अपने 2 पेशवा खो चूका था, को यह गलत सूचना भिजवा दी की महादजी पुणे आ रहे हैं और रात को पेशवा का अंत कर देंगे| इस सूचना को देखते हुए इसकी जाँच भी करायी गई पर कुछ न मिला परन्तु उसी रात कुछ लोगों ने  महादजी को विष दे दिया| और इसी के साथ मराठा साम्राज्य का अंत शुरू हो गया और पुणे पर अंग्रेजों का अधिकार भी हो गया| कुछ इतिहासकारों में इस घटना को लेकर अभी भी मतभेद है पर एक चीज़ जो सब मानते हैं वो यह की एक महान योद्धा की इस प्रकार जहर देकर हत्या कर दी गयी थी|


Jayajirao Scindia Whoisदोस्तों तो यह थी दास्ताँ भारत के महान योद्धा महादजी सिंधिया की| अब हम सिंधिया घराने पर लगाये गए आरोप पर चर्चा कर लेते हैं| सिंधिया राजवंश पर आरोप है की इन्होने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ दिया था और झाँसी की रानी को धोखा दिया था| परन्तु यह आरोप बेबुनियाद है| अंग्रेज इतिहासकार जेम्स मिल और जेम्स टॉड ने यह बताया है कि तत्कालीन सिंधिया राजा जयजिराव सिंधिया ने झाँसी की रानी की मदद की थी| इन दोनों के बीच एक करारनामा हुआ था जिसके मुताबिक ग्वालियर झाँसी की रानी को अंग्रेजों से लड़ने के लिए सैनिकों के अलावा हर चीज़ देकर सहायता करेगा और एसा हुआ भी| जयजिराव सिंधिया ने झांसी की रानी के लिए युद्ध के खेमों का भी निर्माण करवाया था और युद्ध के आखिर तक रसद और पानी झांसी की सेना को भिजवाते रहे थे| जिसे यह साबित होता है की सिंधिया राजघराने पर लगा आरोप गलत है|                                                                           

तो दोस्तों यह था एक अनसुना और अनकहा इतिहास भारत के एक वीर योद्धा का और उसके राजवंश का| आप इस ब्लॉग को जादा से जादा शेयरकरें ताकि लोग भारत के इस वीर योद्धा और उसके राजवंश पर लगे बेबुनियाद आरोपों को जान सकें|
इसके अलावा अगर आप हमें कोई सुझाव देना चाहतें तो हमें कमेंट करें या आप ईमेल करें- paramkumar1540@gmail.com पर या फिर आप हमें हमारे व्हात्सप्प नंबर पे अपना सुझाव भेजें 7999846814

09\05\2020
                                          परम कुमार
                                          कृष्णा पब्लिक स्कूल
                                           रायपुर(छ.ग.)

 ऊपर दीया गया प्रथम  चित्र महादजी सिंधियाका हैऔर दूसरा चित्र जयाजीराव सिंधिया का|


ऊपर दी गई समस्त जानकारी "THE GREAT MARATHAS"  पुस्तक से ली गई है|

ऊपर दी गयीं तस्वीरें इस लिंक से ली गयीं हैं-

1- https://www.google.com/url?sa=i&url=https%3A%2F%2Fwww.xwhos.com%2Fperson%2Fjayajirao_scindia-whois.html&psig=AOvVaw23ZWct7SpOfIoLoTxcGxte&ust=1589102397812000&source=images&cd=vfe&ved=0CAIQjRxqFwoTCMjwpvO5pukCFQAAAAAdAAAAABAH
2-http://images.mid-day.com/images/2016/feb/A-portrait-of-Mahadji-Scind.jpg

Friday 1 May 2020



                           छत्रपति शिवाजी
                   
"अगर हमें अपना कल स्वर्णिम बनाना है तो पहले हमें अपने देश के इतिहास को जानना होगा क्योंकि जो अपने इतिहास की कद्र नहीं करता तब इतिहास भी उसकी कद्र नहीं करता और इतिहास जिसकी कद्र नहीं करता समय उसको भूल जाता है|

जय महाकाल
नमस्कार दोस्तों हमारे आज के चर्चा का विषय आज भारत के उस वीर के ऊपर है जिसने उस समय भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना की जब उत्तर में मुग़लों का और दक्षिण के उत्तर-पश्चिम में आदिलशाही सुल्तान तथा दक्षिण के उत्तर-पूर्व में बहमानी सुल्तान था और इस समय अगर भारत में हिन्दू राज्य स्थापित करना हो तो या तो राजपूतों से या फिर दक्षिण के हिन्दू राजाओं से सहायता लेनी पड़ती थी| पर इस महावीर योद्धा ने बिना इन लोगों की मदद लिए आपना राज्य स्थापित किया| दोस्तों मै बात कर रहा हूँ स्वराज संस्थापक और जिसने कहा था “अगर हमें अपना कल स्वर्णिम बनाना है तो पहले हमें अपने देश के इतिहास को जानना होगा क्योंकि जो अपने इतिहास की कद्र नहीं करता तब इतिहास भी उसकी कद्र नहीं करता और इतिहास जिसकी कद्र नहीं करता समय उसको भूल जाता है|” वो योद्धा हैं महान छत्रपति शिवाजी भोंसले, इनके बारे में चर्चा करने से पहले हम इनके पारिवारिक इतिहास पे एक नजर डाल लेते हैं|

अगर हम शिवाजी के पूर्वजों की बात करें तो इनका रिश्ता महान मेवाड़ के सिशोदिया राजघराने से है| अब आप सब सोच रहे होंगे की मै यह क्या बोल रहा हूँ ! क्योंकि शिवाजी तो मराठे थे और मेवाड़ के सिशोदिया तो राजपूत हैं, परन्तु दोस्तों इस बात का प्रमाण आप को शिवाजी की किताबों जैसे छत्रपति शिवाजी और मराठों के इतिहास में मिल जायेगा| तो अब उस घटना को जानते हैं जिससे यह प्रमाणित होता हो कि छत्रपति शिवाजी का नाता मेवाड़ के सिशोदिया राजघराने से हे वेसे तो इसके कई प्रमाण हैं पर मै इसके प्रचलित दो प्रमाण दूंगा –

प्रमाण 1- प्रचलित एतेहासिक किताब वीर विनोद में ऐसा लिखा है कि सन 1205 ई. में मेवाड़ नरेश महाराणा अजय सिंह ने अपने भाई जयराज सिंह को अपना राजदूत बना कर दक्षिण में भेज दिया था और इन्हीं के यहाँ की तेरहवीं पीढ़ी में शिवाजी का जन्म हुआ था| ऐसी ही एक वंशावली अंग्रेज़ इतिहासकार जेम्सटॉड ने दी थी जिसके अनुसार महाराणा अजय सिंह के ही यहाँ 19वीं पीढ़ी में शिवाजी का होना बताया गया है|

प्रमाण 21303 ई. में अल्लाउदीन खिलजी के आक्रमण के समय रावल रतन सिंह ने अपने छोटे भाई सज्जन सिंह (सुजान सिंह) को दक्षिण की ओर भेज दिया था और इनकी पांचवी पीढ़ी में उग्रसेन का जन्म हुआ था जिनके दो बेटे थे कर्ण सिंह और शुभकृष्ण| कर्ण सिंह के पुत्र भीम सिंह ने बहमानी सल्तनत में उच्च पद मिला और “राजा घोरपड़े बहादुर” की उपाधि भी मिली और एसे ही शुभकृष्ण के परिवार वालों को भोंसले की उपाधि मिली| इसके उपरांत शुभकृष्ण की चौथी पीड़ी में शिवाजी का जन्म हुआ|

इन प्रमाणों से मै यह सिद्ध नहीं करना चाहता कि शिवाजी एक राजपूत थे बल्कि  केवल आप को उनके वास्तविक वंश का एक परिचय दिया है| क्योंकि शिवाजी ने और भारत के कई योधाओं ने भी कहा है कि व्यक्ति अपने कर्म से अमर होता है न की अपने वंश से|

तो चलिए जानते हैं भारत के इस वीर के बारे में :-


शिवाजी के जन्म को के बारे मे कुछ मतभेद हैं पर मै आप को उन में से दो तिथियाँ बताता हूँ| पहले मत के अनुसार शिवाजी का जन्म माता और राजा शहाजी भोसले के यहाँ बैशाख शुक्ल की द्वितीया को शक सवंत 1549 तदनुसार 6 अप्रैल 1627 को शिवनेर के किले में हुआ था| दुसरे मत के अनुसार  यह तिथि फाल्गुन 3 शक सवंत 1551 अर्थात शुक्रवार 19 फरवरी 1630 ई. की है| दोनों ही तिथिओं में 3 साल का अंतर है पर शवाजी का जन्म किसी भी तिथि को हुआ हो उनके शौर्य को कम नहीं कर सकता| उनकी मता जीजा बाई महाराष्ट्र की स्थानीय देवी शिवाई के नाम पर अपने पुत्र का नाम शिवाजी रखा था| शिवाजी को बचपन से ही पिता से अधिक माता का प्यार मिला| पिता हमेंशा ही युद्ध और राज काज के कार्यों में व्यस्त रहते थे| शिवाजी के अलावा जिजाबाई के पांच और पुत्र भी थे जिसमे से चार की पैदा होते समय मृत्यु हो गयी थी और शिवाजी के बड़े भाई संभाजी का ज्यादा समय पिता के ही पास बितता था| इसलिए माता का स्नेह  शिवाजी को अधिक मिला| शिवाजी अपनी माता के साथ पुणे में ही रहते थे, और उन्ही से धर्मं, साहित्य, गीता, रामायण, वेद, उपनिषद, आदि का ज्ञान प्राप्त किया| इनके दुसरे गुरु थे दादाजी कोण्डदेव जो की एक मराठी ब्राह्मण थे| इनके बहुत से उपनाम भी हैं जेसे गोचिवाड़े, पारनेकर, मलठरणकर आदि थे| यह शहाजी जी के पुणे की जागीर की देखभाल करते थे और इन्होने ही शिवाजी को अस्त्र-शास्त्र और दूसरी युद्ध विद्याएँ सिखाई| बचपन से ही शिवाजी ने विदेशियों का अत्याचार देखा था तथा उनके मन में हमेशा से ही स्वराज* की भावना थी|

इस बात को लेकर उनके पिता और उनमें वैचारिक मतभेद भी था पर उनके पिता ने भी सब जानते हुए उनके स्वराज निर्माण के लिए 10 लाख स्वर्ण मुद्राएँ, भगवा झंडा और उनके राज काज में मदद हेतु श्यामराव नीलकंठ (पेशवा), बालकृष्ण पन्त (मजुरदार), बालाजी हरिजी (सभासद), रघुनाथ बल्लाल (कोरडे), सोनो पन्त (दबीर), रघुनाथ अत्रे (चिटनिस) आदि को अलग-अलग समय पर उनकी सहयता हेतु भेजा था| इसके बाद इन्होने अपनी सेना का निर्माण किया उस समय इनकी सेना में मालवी नामक ही लोग थे| इन्होने अपने जीवन कल के पहले तीन किलों पर अधिकार बिना युद्ध लड़े या यह कहें कि रिश्वत से हासिल किया था| वो तीन कीले हैं तोरण, चाकन और कोंडन के जो उनकी कूटनीतिक सूझबूझ को बताती है| इसके पश्चात इन्होने आबाजी सोंदेव की मदद से मुल्ला अहमद से ठाणे, कल्याण और भिवंडी के किले भी जीत लिए| इस घटना से पुरे आदिल शाही और बीजापुर सल्तनत में हड़कंप मंच गया| 1648 में शिवाजी को रोकने के लिए उनके पिता को कैद कर लिया गया| इस घटना के सात साल बाद तक शिवाजी ने आदिल शाही सल्तनत पर सीधा हमला नही किया| इसके पश्चात् इस समय इन्होने अपनी विशाल सेना का निर्माण किया जिसमे अश्वरोही दल के सेनापति थे नेताजी पालकर और पैदल सेना के सेनापति थे यशजी कंक| 1657 तक शिवाजी ने 40 किले जीत लिए थे|  1657 बीजापुर की बड़ी बेगम ने शिवाजी को रोकने के लिए अफसल खान को 10000 की सेना के साथ भेजा| अफसल खान ने शिवाजी को उकसाने के लिए कई मंदिर तोड़े और कई लोगों के प्राण लिए पर शिवाजी छापामार युद्ध ही करते रहे| अंत में शिवाजी ने अफसल खान को प्रतापगड के किले में मिलने के लिए बुलाया| अफसल खान 7 फीट 6 इंच लम्बा था| उसने सोचा था की वो शिवाजी को अपनी बाँहों में दबा के मार देगा पर शिवाजी ने अपने बाघनका से उसका पेट चिर डाला (बाघनका एक विशेष तरह का कड़ा होता है जिसे हाथ मे पहना जाता है) | इसके पश्चात् 1659 में आदिल शाह ने रुस्तम जमन को शिवाजी से लड़ने भेजा और उसके और शिवाजी के बीच 28 दिसंबर को युद्ध हुआ जिसमें शिवाजी ने अपने युद्धकौशल से ही रुस्तम जमन को हरा दिया| 1660 में सीधी जौहर को आदिलशाह ने भेजा इस समय शिवाजी पन्हाला के किले में थे| सीधी जौहर ने पूरा किला चारों करफ से घेर लिया था| शिवाजी ने उसे मिलने के लिए बुलाया और उसी समय आदिलशाह को सन्देश भिजवा दिया की सीधी जौहर उसके साथ छल कर रहा है| यह सुनकर आदिलशाह ने सीधी जौहर पर ही आक्रमण कर दिया इस मौके का फायदा उठा के शिवाजी अपने 5000 सैनिकों के साथ वहां से निकल गए पर जब यह बात आदिलशाह को पता चली तो उसने शिवाजी पर आक्रमण करने का प्रयास किया| तब बाजीप्रभु देशपांडे ने अपने 700 सैनिकों के साथ शिवाजी की रक्षा की और अपने प्राणों की आहुति दे दी| इस घटना के बाद बीजापुर की बड़ी बेगम ने औरंगजेब से मदद मांगी| तब उसने अपने मामा शयेषता खान के नेतृत्व में 150000 की सेना पुणे भेजी| शयेषता खान ने सेना के बल पर पुणे जीत लिया और शिवाजी के निवास लाल महल पर अधिकार कर लिया| उसी रात शिवाजी ने अपने 400 सैनिकों के साथ पुणे में बरातिओं के रूप में प्रवेश किया और शयेषता खान को वहां से भागने पर विवश कर दिया पर भागते समय शयेषता खान की तीन उंगलियाँ कट गयी मुग़ल सेनापति की जान तो बच गयी पर इज्जत चली गयी| इस घटना के बाद शिवाजी ने औरंगजेब से बदला लेने के लिए 1664 में सूरत जो कि उस समय का एक बहुत बड़ा व्यावसायिक केंद्र था उसे लूट लिया और बर्बाद कर दिया| इस घटना के बाद मुग़लों और शिवाजी के बीच तनाव बढ़ने लगा| सूरत की घटना के बाद शिवाजी को निंयत्रित करने के लिए औरंगजेब ने 60 वर्षीय राजपूत सरदार राजा जयसिंह को भेजा | राजा जयसिंह अपने साथ 3 लाख की सेना लेकर गए थे, और बिना किसी युद्ध के उन्होंने शिवाजी को समझाया कि वो इस समय औरंगजेब से संधि कर लें और बाद में युद्ध करते रहें| शिवाजी इस पर राजी हुए और मुग़लों को हर्जाने के रूप में 23 किले और 400000 नगद राशी दी| औरंगजेब से राजा जय सिंह ने वचन लिया कि वो शिवाजी को उच्च पद देगा अपने दरबार से उन्हें जाने देगा| शिवाजी जिस दिन आगरा पहुंचे उस दिन औरंगजेब का जन्मदिवस था और हर कोई उसे कुछ कुछ उपहार दे रहा था इसी बीच राजा जय सिंह के पुत्र राम सिंह ने शिवाजी का परिचय औरंगजेब से कराया और तब कुंवर राम सिंह के कहने पर शिवाजी ने अपने हीरे का हार औरंगजेब को भेंट किया| अब बारी औरंगजेब की थी की वो सब को कुछ कुछ उपहार दे कर सम्मान से विदा करे| इस मौके पे उसने शिवाजी का अपमान करने के लिए उन्हें अपने एक मंत्री के पीछे खड़ा करवा दिया जिसे उन्होंने सूरत में हराया था| यह अपमान शिवाजी सहन कर सके और दीवाने-खास में ही औरन्जेब को जान से मारने की धमकी दी इस पर औरंगजेब ने उन्हें जा से मारने का आदेश दे दिया| तभी वहां राम सिंह ने कहा मेरे पिता राजा जय सिंह ने तुमसे इस वचन पर शिवाजी को यह भेजा था की तुम उनका सम्मान करोगे और उन्हें नियंत्रित करने के लिए उनके बराबर की पद्वी दी जाएगी पर अब उन्हें मारने का प्रयास कर रहे हो, अगर ऐसा हुआ तो युद्ध हो जायेगा और दिल्ली की दीवारें हिल जाएँगी|” इस पर औरंगजेब ने कहा अगर तुम मुझे अपने हस्ताक्षर कर के दो की तुम्हारे पिता के आने तक शिवाजी आगरा मे ही रहेंगे और वो नहीं भागेंगे तो मैं उन्हें माफ कर दूंगा| राम सिंह ने यह शर्त मंजूर कर ली| पर औरंगजेब ने राजा जय सिंह, राम सिंह और शिवाजी तीनो  के साथ छल किया और अंत में शिवाजी और उनके पुत्र संभाजी को अगरा के ही किले में नजर बंद कर लिया| पर शिवाजी तो एक तूफान थे और तूफान को कौन कैद कर सका है| शिवाजी ने युक्ति लगायी और बीमार होने का नाटक किया इस नाटक में राजा जय सिंह के पुत्र कुंवर राम सिंघ ने उनका पूरा साथ दिया| वो जल्द से जल्द ठीक हो जाये इसके लिए वो रोज आगरा से दान के रूप में मिठाई और कपडे भिजवाते थे फिर एक योजना बनाकर अपने साथ अपने बेटे को लेकर संदूक मे छिपकर औरंगजेब की कैद से फरार हो गये, उस दिन कुंवर राम सिंह ने अपने सिपहिओं को संदूकों की तलाशी का जिम्मा दिया था ताकि शिवाजी आगरा से जल्द से जल्द निकल जायें| इसके बाद  मथुरा, काशी, गया, पूरी, गोलकोंडा, बीजापुर होते हुये रायगड पहुंचे| मुग़लों के लिए यह घटना बहुत शर्मसार करने वाली थी| 1670 ई. में ही इस घटना के कुछ समय बाद ही केवल 4 महीने में शिवाजी ने अपना खोया हुआ समस्त राज्य प्राप्त कर लिया और 1672 ई. में  आदिल शाह की मृत्यु हो गयी| जिससे आदिल शाही सल्तनत ख़तम हो गयी और इसके बहुत बड़े हिस्से पर शिवाजी का राज्य हो गया| इसके अलावा 1671 ई. से 1674 ई. तक औरंगजेब ने शिवाजी हराने का बहुत प्रयास किया और इसके लिए अपने बड़े-बड़े मंत्री जैसे की दौड खान और मौहबत खान को उनसे युद्ध करने के लिए भेजा पर वो कभी भी कामयाब नहीं हो सका| इसके पश्चात 6 जून 1674 को रायगड के किले में हिन्दू रिती रिरवाजों के साथ एक बार पुन: शिवाजी का राज्य अभिषेक हुआ, और इनके मित्र गगाभट की प्राथना पे इन्होने छत्रपति कि उपाधि ग्रहन की| शिवाजी ने अपना ज्यादा जीवन धर्म की और निर्दोषों की रक्षा में ही लगाया और कभी भी धर्म को ले कर मतभेद नहीं किया वो हर धर्म का सम्मान करते थे| इन्होने एक बार पुनः जल सेना का निर्माण किया और अंग्रेजों का और पुर्तगाली सेना से कई गावों की रक्षा भी की| पर मार्च 1680 में 50-52 साल की छोटी सी आयु में इनका स्वर्ग वास हो गया पर इनकी स्वराज की मशाल जलती रही और इनका यह स्वराज कर्नाटक में कटक से ले के गंधार में अत्तोक तक फेल गया और औरंगजेब ने भी 25 सालों तक मराठों से युद्ध करते करते अपने प्राण दे दिए|

*शिवाजी को समर्पित इस लेख को समाप्त करने के पूर्व मैं यह बताना जरुरी समझता हूँ कि शिवाजी के लिए स्वराज का क्या अर्थ था| शिवाजी का स्वराज से तात्पर्य था भारत में भारत के मूलवासियों का ही राज्य रहे और विदेशियों का कदापि न रहे| कुछ लोग शिवाजी के स्वराज का गलत मतलब भी निकालते हैं इसलिय हम सब देश वासियों का यह कर्तव्य है की हम शिवाजी के स्वराज का वास्तविक अर्थ जाने|

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तो दोस्तों यह थी गाथा मराठा साम्राज्य की नींव रखने वाले महान योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज की|

01\05\2020
                                      परम कुमार
                                 कृष्णा पब्लिक स्कूल
                                     रायपुर(छ॰ग॰)

ऊपर दी समस्त जानकारी इन दो किताबों से ली गयी है-

 1-  छत्रपति शिवाजी (डॉ॰ भवानी सिंह राणा)

 2-  राजपूतों कि गौरवगाथा (राजेंद्र सिंह राठौड़)

ऊपर दी गयी फोटो इस लिंक से ली गयी है

https://in.pinterest.com/pin/199143614752301193/

   



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