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Sunday 30 August 2020

जय महाकाल,
नमस्कार दोस्तों
(कृपया HISTORY TALKS BY PARAM का YOUTUBE channel सब्सक्राइब करे| लिंक नीचे दी गयी है)
 आप सब का हमारी आज की चर्चा में स्वागत है| आज हमारी चर्चा का विषय ना ही किसी राजा पर है, ना ही किसी युद्ध पर है| हम आज भारत में व्याप्त जाती व्यवस्थापर है| हम आज एक ऐसे राजा के बारे में भी जानेगें जिनकी वीरता का वर्णन पूरे भारतीय इतिहास में कहीं भी नहीं है| परन्तु उनकी वीरता को उस समय के सभी वीरों ने प्रणाम किया था| उस वीर के बारे में जान लेने के पूर्व मैं भारत के जाती श्रेणी के बारे में आप सब को एक नई जानकारी प्रदान करना चाहूँगा| आईये शुरू करते हैं|


दोस्तों आज मैं आप को जिस राजा के बारे में बताऊंगा, उनका उपनाम सुनके आप सब को बड़ी हैरानी होगी, क्योंकि उनका उपनाम था “श्रीवास्तव” | जी हाँ दोस्तों आप सब ने ठीक पढ़ा “श्रीवास्तव| आप लोग सोच रहे होंगे की मे यह क्या लिख रहा हूँ श्रीवास्तव राजा कैसे हो सकते हैं वो तो क्यास्थ होते हैं जो कि भारत में व्याप्त जाती व्यवस्था के अनुसार वैश्य श्रेणी में आते हैं| परन्तु दोस्तों यह असत्य है| क्यास्था वैश्य श्रेणी में नहीं बल्कि क्षत्रिय श्रेणी में आते हैं| दोस्तों अब आप सब सोचेंगे की क्षत्रिय तो राजपूत होते हैं कायस्थ क्षत्रिय कैसे हो सकते हैं| तो दोस्तों मै आपको बताना चाहूँगा की दो साल की अनुसंधानिक प्रक्रिया के पश्चात् मुझे यह ज्ञात हुआ की “ कायस्थ क्षत्रिय हैं परन्तु राजपूत नहीं ”| जब मै आज के ब्लॉग की अनुसंधानिक प्रक्रिया में था तब मेरे मस्तिस्क में एक प्रशन कौंधा (यह प्रशन इस वजह से कौंधा क्योंकि में भी कायस्थ हूँ)| भाई दूज के दिन हमारे यहाँ भगवान चित्रगुप्त की पूजा होती है, जिसमे बताया जाता है की भगवान ब्रह्मा से भगवान श्री चित्रगुप्त का जन्म हुआ जो की मस्तिस्क से ब्राहमण, बाहू से क्षत्रिय, कमर से वेश्य और घुटनों से शूद्र थे और उनसे 12 पुत्रों की उतपत्ति हुई| मेरे मस्तिष्क में जो प्रश्न आया वो यह की भगवान चित्रगुप्त की कथा के अनुसार कायस्थ किस वर्ण में आयेंगे? क्योंकि कथा में तो कायस्थों में चारों वर्णों के गुणों का जिक्र है| इसके बाद जब मै इसकी अनुसंधानिक प्रक्रिया में लगा तो मुझे ज्ञात हुआ की पूड़े भारत में मात्र क्यास्थ ही एक एसे क्षत्रिय होते हैं जिनमे क्षत्रिय के गुणों के अलावा भारत में व्याप्त हर जाती के गुणों का श्रेणी होता है और उस समय के भारत में मात्र क्यास्थ ही एसे लोग थे जो किसी भी प्रकार का कोई भी मनोवांछित कार्य कर सकते थे| अतः यह हम लोग के लिए बहुत महतवपूर्ण जानकारी है ताकि लोगों को भारत में व्यापत जाति व्यवस्था की उचित जानकारी मिल सके क्योंकि हमें सही जानकारी की बहुत आवश्यकता है| मेरा मकसद यह नहीं की में क्यास्थों की श्रेणी में अपनी ओर से कोई फेरबदल करूँ| मै बस आप लोगों को एक उपयुक्त जानकारी दे रहा हूँ|
येह तो बात हुई कायस्थों की उत्प्पति की| आईये अब बात करें एक ऐसे वीर की जिसने अपने समय के सब से पराक्रमी और 16 वी सदी की भारत की सब से बड़ी ताकत यानि मुग़लों को चुनोती दी थी| दोस्तों मै बात कर रह हूँ जशोर नरेश महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव की| आज के समय में जशोर बांग्लादेश में आता है| आईये तो जाने किस प्रकार महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव ने मुग़लों को चुनौती दी और बता दिया की एक व्यक्ति में क्या कुछ करने की क्षमता है| दोस्तों यह घटना कुछ इस प्रकार की है| एक बार अकबर के दरबार में सन 1561 ई. में एक कवि आया था, जिससे अकबर ने अहंकारवश यह पुछा की भारत का सबसे शक्तिशाली राजा कौन| है उस कवि ने कहा महाराणा प्रताप| यह सुन के अकबर ने अहंकारवश अपने वैभव और ताकत का बखान कर दिया| तब उस कवि ने कहा आपने ने जो बातें बतायीं जैसे कि मेरे पास 10 लाख की फौज है,1500 करोड़ से भी अधिक धन है, आदि| यह बातें साफ करती हैं की इतना सब होने के बावजूद उस प्रताप को युद्ध में पराजित न कर सके| इससे तो यही पता चलता है की महाराणा प्रताप आप से बड़े शासक हैं और एक सच्चे राजपूत और मातृभूमि के भक्त हैं| तब अकबर ने कहा तुम राजपूतों की बात करते हो इतने सारे राजपूत मेरे दरबार में भरे पड़े हैं| तब उस कवि ने कहा
“हर भारतीय राजपुताना का नही होता,
हर राजपुताना का व्यक्ति मेवाड़ी नहीं होता,
हर मेवाड़ी राजपूत नहीं होता,
हर राजपूत सूर्यवंशी नहीं होता,
और हर सूर्यवंशी राजपूत महाराणा प्रताप नहीं होता”|
इन पक्तियों को कहने के बाद उस कवि का क्या हुआ हमें इसकी जानकारी नहीं मिलती इसके लिए हमे क्षमा करें|
परन्तु इतिहास में वर्णित है की इस घटना के पश्चात् अकबर ने हल्दीघाटी के युद्ध की घोषणा करवादी थी और यह भी कहा था,जो भी महाराणा प्रताप का साथ देगा वह मुगलों का पहला निशाना होगा| इस युद्ध के समय महाराणा प्रताप से प्रेरित होकर जशोर के सबसे बड़े जमींदार ठाकुर प्रतापदित्य श्रीवास्तव ने मुग़लों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था और बंगाल के नवाब जो की मुगलों का सूबेदार था उसकी हत्या भी करवादी थी| इतिहास में इस घटना की कोई उपयुक्त तिथि नहीं मिलती परन्तु कई इतिहासकारों के अनुसार यह घटना 1570 ई. से 1575 ई. के मध्य की ही है| इन्टरनेट पे महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव की जन्म तिथि 1561ई. है और मृत्यु की तिथि 1611 ई. दी हुई है| इन दोनों तिथियों की कोई उपयुक्त पुष्टि नहीं मिलती, परन्तु अधिकतर इतिहासकार मानते हैं की महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव का जन्म 1550 ई. से 1555 ई. के मध्य में ही हुआ है और मृत्यु 1608ई. से 1611ई. के मध्य हुई थी| बंगाल के नवाब की हत्या के पश्चात् ठाकुर प्रतापदित्य श्रीवास्तव को बंगाल के लोगों ने महराज की उपाधि दे दी थी| अकबर के लिए यह बहुत बड़ी चिंता का विषय बन गया था| क्योंकि उसके दो सब से महत्वपूर्ण धन आगमन मार्गों में उसके शत्रुओं की राज्य की स्थापना हो गयी थी| उत्तर-पश्चिम में गुजरात के मार्ग पर महाराणा प्रताप का शासन था| तो वही बंगाल के मार्ग पर नहीं बल्कि पूरे बंगाल और बंगाल की खाड़ी पर महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव का राज था| लगातार महाराणा प्रताप से युद्धों में मुगलों को वैसे ही बहुत धन की हानि हुई थी| वो अपना एक और धन का मार्ग नहीं खो सकते थे| इसके लिए अकबर ने स्वयम बंगाल पर पुनः अधिकार करने के लिए अपने नेतृत्व में सन 1575 ई. में बंगाल गया| जहाँ पर उसके सामने एक 20-25 साल का एक बालक खड़ा था| तब अकबर ने कहा “बच्चे तुम चले जाओ तुम्हारे परिवार को तुम्हारी आवश्यकता आने वाले समय में होगी| तुम एक व्यापारी हो व्यापारी ही रहो राजा बनने की कोशिश मत करो तब महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव ने कहा “मै राजा बनने की कोशिश नहीं कर रहा, मै राजा बन चुका हूँ”| यह सुन के अकबर ने युद्ध का आदेश दे दिया परन्तु यह युद्ध अकबर के पक्ष में न था बंगाल में इस समय वर्षा आयी हुई थी जिसकी वजह से अकबर के सेनिकों के हांथियों के पांव जमीन में धंसने लगे और बिजली कडकने की वजह से हांथियों में भगदर मच गायी और अकबर की सेना को बहुत हानि हुई| स्वयम अकबर का हांथी खुद हवाई भी इस युद्ध में बेकाबू हो गया था| इस मौके का फायदा उठा के महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव की सेना ने अकबर की सेना पे जबरदस्त आक्रमण किया और क्योंकि उनकी सेना में पैदल सैनिकों की संख्या अधिक थी महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव की सेना मुगलों पर भारी पड़ी| इस युद्ध में महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव की विजय हुई और अकबर को युद्ध से भागना पड़ा| कहा जाता है की एक बार जब महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव बनारास अपने मित्र के यहाँ थे तब शराब पिने की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी कई लोगों का कहना है की उनको विष दे दिया गया और कई लोगों का मानना है की अकबर की सेना ने वाराणसी(बनारस) पर आक्रमण कर दिया था और युद्ध में महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तव वीरगति को प्राप्त हुए थे| महाराज प्रतापदित्य श्रीवास्तवकी मृत्यु जैसे भी हुई हो परन्तु उनके द्वारा किया कार्य अपने आप में बहुत बड़ी बात है| परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है की हमे ऐसे महावीर के बड़े में अधिक नहीं मालूम| अतः मेरा निवेदन है की आप इस ब्लॉग को अधिक से अधिक शेयर करें| और जैसा की मेने ऊपर बताया कि आप अगर यह ब्लॉग को और मेरे’ अन्य ब्लोगों को सुनना चाहते हें तो हमारे यू टयूब(youtube) चैनल को सब्सक्राइब  (subscribe) कर लें|
30/08/2020
परम कुमार
कक्षा-11
कृष्णा पब्लिक स्कूल
रायपुर,(छ.ग.)




अगर आप सुविचार पढ़ना चाहते हैं तो नीचे दी गई लिंक को दबाएं
https://madhurvichaar.blogspot.com/2020/09/blog-post_91.html

ऊपर दी गयी फोटो इस लिंक से ली गयी है-
https://www.paramkumar.in/2020/08/unidentified-kshatriya-kayastha.html

Wednesday 5 August 2020

                   यह विडियो अवश्य देखें( परम कुमार)

जय महाकाल,

नमस्कार दोस्तों आप सब का मेरे इस ब्लॉग में पुनः स्वागत है|

दोस्तों आज हमारी चर्चा का विषय भारत के उस राजवंश के ऊपर है, जिसके पराक्रम, शौर्य और दानवीरता की गाथा पुरे विश्व में प्रचलित है| आज हम उस वंश के बारे में बात करने वाले हैं, जिसमें हुए एक वीर पुरुष के नाम पर हमारी धरती का नाम पृथ्वी पड़ा| आज हम उस वंश के बारे में चर्चा करने वाले हैं जिसमे, हुए एक राजा की वजह से लायी हुई नदी में स्नान करके आज की इस दुनिया में हम हर तरीके के पाप से मुक्त हो जाते हैं| दोस्तों आज हम उस वंश के बारे में जानेंगे जिसने कहा था “रघुकुल रीती सदा चली आई प्राण जाई पर वचन न जाई”| दोस्तों अब आप समझ ही गये होंगे मैं बात कर रहा हूँ महान सुर्यवंश की जिसमे भगवान विष्णु ने मानव अवतार में श्री राम के रूप में जन्म लिया था और बताया था कि अगर एक मानव चाहे तो क्या कुछ नही कर सकता है| उन्होंने बताया अगर मानव को कुछ हासिल करना है तो उसे अपने घर से बहर निकलना होगा| क्योंकि अगर श्री राम वनवास ना जाते तो वो केवल श्री राम रहते वो वनवास गये इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम कहलाये| वो वन गये तो बन गये | उन्होंने बतया की हर नकारात्मक विषय में सकारात्मक देखो| जब महाराज दशरथ उन्हें आदेश देते हैं वन जाने का तब वो अपनी माता से कहते हैं “माँ पिताजी ने मुझे जंगलों का राजा बनाया है”| वो हमे बताने आये थे जो अपनों से दूर जायेगा वो पूरे संसार का हो जायेगा और पुरे संसार में उसका भी परिवार आयेगा तो वो अपने परिवार से कभी भी दूर होगा ही नहीं|

दोस्तों आज हमारी चर्चा का विषय श्री राम के ऊपर नहीं बल्कि श्री राम के वंश में उनसे पूर्व जन्मे बाकि महान राजाओं के ऊपर है| इनमे कुछ तो एसे वीर थे जिनके सामान आज तक कोई न हुआ| अगर इनके समय के भारत का मानचित्र देखा जाये तो पूरे विश्व पे केवल भारत का ही राज है|  आईये तो जानते हैं भारत के उन महान शासकों के बारे में जिनके नाम पर हमारी पृथ्वी का नाम है| 

दोस्तों जब आपने मेरे आज के इस ब्लॉग का विवरण पड़ा होगा तो आपको लगा होगा कि अरे मैं यह क्या बात कर रहा हूं पृथ्वी का तो जन्म जन्मांतर युग युगांतर से पृथ्वी ही नाम रहा| तो दोस्तों आपको जानकर बड़ी हैरानी होगी कि पृथ्वी का नाम पहले से पृथ्वी नहीं था| पृथ्वी के पुराने नामों में से कुछ नाम मैदरी और मृतिका भी हैं| दोस्तों किस प्रकार से पृथ्वी का नाम पृथ्वी पड़ा और उसके पीछे की वजह क्या थी यह सब हम अपने आज के इस ब्लॉग में जानेंगे दोस्तों इस विषय के ऊपर चर्चा करने के पूर्व मैं आपको यह बताना चाहूंगा कि किस प्रकार पृथ्वी का पुराना नाम मैदरी पड़ा| दोस्तों बचपन में आप सब ने अपने दादा दादी नाना नानी से मधु और कैटभ नामक दो राक्षसों की कहानी सुनी होगी| ये दो राक्षस अहंकार में मदहोश होके भगवान विष्णु के पास पहुंचे और कहा कि तुम हमसे वरदान मांगो श्री जगन्नाथ भगवान विष्णु ने इन दोनों से इनकी मृत्यु का उपाय वरदान के रूप में मांगा| मधु और कैटभ ने कहा चाहे राक्षस हो या भगवान या फिर दानव अगर किसी व्यक्ति का कहां हुआ वाक्य अधूरा रह जाए तो उस व्यक्ति का जीवन व्यर्थ होता है | तब मधु और कैटभ ने अपनी मृत्यु का मार्ग स्वयं ही भगवान विष्णु को बता दिया| उस मार्ग के अनुसार मधु और कैटभ ना ही धरती पर मर सकते थे, ना ही आसमान, ना ही जल में डूब सकते थे, ना ही धरा में समा सकते थे | तब भगवान विष्णु ने अपनी जांघ को पूरे जगत में फैला दिया और कैटभ का सर अपने सुदर्शन चक्र से अलग कर दिया, जब वह मधु को मार रहे थे तो उन्होंने अपनी गदा का प्रयोग किया जिससे मधु के शरीर का मैदा जिसे अंग्रेजी में फैट भी बोला जाता है, पूरे भूमंडल में फैल गया जिसकी वजह से पूरे भूमंडल का नाम मैदरी पड़ गया| तो दोस्तों यह थी कहानी पृथ्वी के नाम मैदरी होने की| (पृथ्वी का नाम मृतिका कैसे पड़ा इसका विवरण हमे अभी प्राप्त न हो सका)

 आइए अब हम जानते हैं किस प्रकार पृथ्वी का नाम पृथ्वी पड़ा| दोस्तों भगवान श्री राम के वंश में अनेक अनेकों प्रतापी और महान योद्धा हुए| उसमें से एक थे महाराज पृथु | ऋषि मारीची के द्वारा स्थापित इक्ष्वाकु वंश के छठवें राजा दोस्तों आपको यह जानके बड़ी हैरानी होगी कि महाराज पृथु का जन्म केवल उनकी पिता की दाई भुजा से हुआ था इनकी कोई भी माता नहीं थी| इनके पिता अनेनस ने भगवान ब्रम्हा का आह्वान कर अपने दाई भुजा से पृथु की उत्तपति की|

विष्णु पुराण के अनुसार महाराज पृथु भगवान विष्णु के अंश थे| दोस्तों मैं यहां पर आपको यह  बताना चाहूंगा कि अवतार और अंश में बहुत छोटा सा एक अंतर होता है| जब हम कहते हैं कि श्री राम भगवान विष्णु के अवतार थे तो उसका मतलब यह है कि मनुष्य रूप में भगवान जन्मे थे और जब हम कहते हैं महाराज पृथु में भगवान विष्णु का अंश था, तो उसका मतलब है भगवान विष्णु की कलाओं का कुछ अंश महाराज पृथु में जन्म से था| भगवान विष्णु ने महाराज पृथु के रूप में इस संसार में इसलिए जन्म लिया था क्योंकि वह इस पूरी पृथ्वी की मानव जाति को एक साथ लाकर एक बेहतर जीवन सबको प्रदान करना चाहते थे| इसके लिए महाराज पृथु ने बहुत से युद्ध भी किए और उन्होंने यह पृथ्वी भी जीत ली| दोस्तों आपको यहां पर थोड़ी शंका हो सकती है कि मैं बार-बार पृथ्वी नाम क्यों ले रहा हूं क्योंकि अभी तक महाराज पृथु के नाम पर पृथ्वी का नाम नहीं पड़ा था| दोस्तों उसकी तथा कुछ इस प्रकार से है पौराणिक काल में ध्रुवा नाम का एक अत्याचारी राजा था जिसने अपने पूरे राज्य में पूजा पाठ करने से मना कर दिया था| इससे क्रुद्ध होकर धरती मां ने गाय का रूप लिया और भाग गई| जिससे पूरे संसार में अकाल पड़ गया| कहीं पर भी वर्षा नहीं होती थी| कहीं पर भी खेती नहीं होती थी, कहीं पर भी एक परिंदा नहीं बच रहा था| जीवन मानो समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया था| सारे ऋषियों ने मिलकर महाराज पृथु से विनती की कि है महाराज पृथु आप अत्याचारी और दुष्ट राजा ध्रुवा का अंत करें और माता धरती को पुनः लाएं| तब महाराज पृथु ने ध्रुवा से लड़ाई की और उसे युद्ध में पराजित कर वह माता धरती की खोज में निकल गए| वह जब अरावली वनों के जंगलों में पहुंचे तब उन्हें वहाँ पर एक अलग सी आभा  वाली एक गाय दिखी| महाराज पृथु समझ गए कि यह और नहीं बल्कि माता धरती हैं|  उन्होंने माता धरती का बहुत दूर तक पीछा किया पर माँ धरती ना रुकी| तब मजबूरन महाराज पृथु तो माता धरती के सामने आना पड़ा और वहां माता धरती से टकराकर घायल होते हुए| अपनी घायल अवस्था में उन्होंने माता धरती को रोका और माता धरती का जो कि अभी गाय के स्वरूप में थी उनका दूध पिया| इससे प्रसन्न होकर माँ धरती पुनः अपने असली स्थान में स्थापित हो गयीं, क्योंकि इस धरती को उसका रक्षक मिला| एक रक्षक भी ऐसा, जिसने पुनः पूरे संसार को एक नया जीवन दिया| इस प्रकार धरती का नाम महाराज पृथु के नाम पर पृथ्वी पड़ गया| तो दोस्तों यह थी महाराज पृथु की कथा जिन्होंने ना केवल मानव जीवन को बचाया था बल्कि आज हमारी पूरी पृथ्वी का नाम उनके नाम पर है| पर मुझे बड़ा दुख है कि हमें भगवान श्री राम के बारे में तो पढ़ाया जाता है| पर इनके उज्जवल पूर्वजों के बारे में हमें नहीं पढ़ाया जाता |अगर हम किसी बालक से पूछे की महाराज श्री राम के पिता का क्या नाम था तो वह दशरथ बता सकता है पर अगर हम यह पूछे कि भगवान श्री राम के दादा का क्या नाम था? तो वह नहीं बता सकता वह यह नहीं बता सकता कि लव कुश के बच्चों का क्या नाम था? इसलिए अगर भारत को एक आत्मनिर्भर देश बनना है तो उसे जरूरी है कि भारत की युवा पीढ़ी भारत के  लोगों को उसकी संस्कृति को जाने|

इस आशा के साथ की आप मेरा यह सन्देश जन-जन तक पहुँचायेगे में आप सब से विदा लेता हूँ| आब आप सब से अगले ब्लॉग में मुलाकात होगी|

                                ||जय महाकाल||

                                 ||जय भारत||



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05\08\2020

                                                                                                               परम कुमार

                                          कृष्णा पब्लिक स्कूल

                                          रायपुर (..)

                                          कक्षा-11



ऊपर दिया गया चित्र इस लिंक से लिया गया है-

https://www.google.com/url?sa=i&url=http%3A%2F%2Fevents.iskcon.org%2Fevent%2Fmayapur-institute-iskcon-leadership-course-march-2016%2F&psig=AOvVaw2VQ9iDXBJhbERp7Le8T9W8&ust=1596724791853000&source=images&cd=vfe&ved=0CAIQjRxqFwoTCJCbotilhOsCFQAAAAAdAAAAABAJ

 



Sunday 21 June 2020


जय महाकाल,
नमस्कार दोस्तों!!
आप सबका मेरे इस ब्लॉग में हार्दिक स्वागत है| आज की हमारा चर्चा का विषय किसी युद्ध पर नहीं किसी ऐसे व्यक्ति पर रहेगा जिसे यह संसार ना जाता हो| आज हम जिस व्यक्ति के बारे में चर्चा करेंगे उसे यह पूरा विश्व जानता है| उस व्यक्ति को उसके युद्ध, उसके धार्मिक कार्यों और बौद्ध धर्म को इस जगत में एक नई ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए जाना जाता है।

 तो दोस्तों आप समझ ही रह होंगे कि मैं बात कर रहा हूं महान हिंदू सम्राट चक्रवर्ती अशोक मौर्य की| आप में से अधिकांश लोग सोच रहे होंगे अरे हम तो अशोक के बारे में सब जानते हैं तो ऐसा क्या है जो हम नहीं जानते हैं|
चलिए तो आज मैं आपको ले चलता हूं अशोक मौर्य महान के जीवनकाल में और जानते हैं ऐसा क्या हुआ जो कि एक महान राजा बिन्दुसार के पुत्र और भूतपूर्व महाराजा चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र को वन में अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा, क्या हुआ जो कि इस व्यक्ति को अपने ही 98 भाइयों को मारना पड़ा| कलिंग के युद्ध में ऐसा क्या हुआ था जिसे अशोक को युद्ध से नफरत हो गई| इन सभी प्रश्नों के उत्तर हम आज इस ब्लॉग में पाएंगे|

अशोक का जन्म सन 302 ईसा पूर्व में हुआ था| इनके पिता का नाम था सम्राट बिंदुसार मौर्य और माता का नाम  धम्मा(शुभाद्रंगी) था| महान अशोक के बचपन को लेके इतिहास में बहुत सी घटनाएं प्रचलित है| उनमें से कुछ पर आज हम बातें करेंगे जिससे हमें अपने पहले सवाल का उत्तर मिलेगा|


1-  अशोक का जीवन वन में क्यों व्यतीत हुआ
इस प्रशन के बहुत से उत्तर हैं| यह उत्तर सुनके आप सब को लग सकता है कि मैं कोई कहानी सुना रहा हूँ पर यह ही असली बात है| अशोक के पूर्व उनके पिता का भी जीवन वन मे व्यतीत हुआ था | इसका कारण था उनका शिक्षा पाना और अपने प्रजा के बीच उनसे घुल मिल के उनकी समस्या जानना| आप सब सोच रहे होंगे की यह सब कम तो सब राजा करते हैं| इसमें ऐसा क्या था जो अशोक ने वन में रह के किया| अशोक और उनसे पूर्व उनके पिता और दादा ने भी एसी शिक्षा ली थी जो उन्हें और कोई नहीं बल्कि स्वयम आचार्य चाणक्य देते थे| इसके पीछे कारण यह था की समय के साथ परिस्थिति बदलती है और उन समस्या का समाधान केवल वह ही व्यक्ति कर सकता हे जो उनके बीच रह के आया हो और उन परिस्थिति से अवगत हो जिनसे समस्या उत्पन हुई| इसलिए होने वाले सम्राट अपना सम्पूर्ण बालकल्या वन में या फिर आम जनता के बीच व्यतीत करना पड़ता था| ताकि समय आने पर वो सम्राट अपनी प्रजा के लिए एक सही और सटीक निर्णय ले सके| परन्तु आज के युग में टी.वी. वाले और अन्य अंकीय मनोरंजन (डिजिटल मनोरंजन) वाले इस घटना को बहुत मिर्च मसाला लगाके यह बताते हैं कि अशोक की माँ वन में रहती थी और उनके पिता यानि बिन्दुसार जब एक बार शिकार पे गये तो उन्हें उनसे प्रेम हो गया और उनसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति भी हुयी पर क्योंकि वो वन की निवासी थी इसलिए उन्होंने उन्हें स्वीकार नहीं किया| यह सब दिखाना गलत है| मैं यह नहीं कहता की टी. वी. पे आने वाला सीरियल ही गलत है पर उसके कुछ तथ्य और घटनाएँ बे बुनियाद हो सकती हैं, जिसका सही विश्लेषण आवश्यक है| इसके पीछे की असली घटना यह थी कि अशोक की माँ धम्मा बिन्दुसार की प्रथम पत्नी सुसीमा की सखी थीं जो की उन्ही के साथ महल में रहती थीं और सम्राट बिन्दुसार को उनसे प्रेम हो गया| आचार्य चाणक्य को भी यह विवाह स्वीकार था क्योंकि वो चाहते थे कि सम्राट बिन्दुसार के बाद अगला शासक भी पूर्ण रूप से हिन्दू हो| हमे इतिहास में इस बात की कोई जानकारी नहीं मिलती की सम्राट बिन्दुसार की प्रथम पत्नी दुसरे धर्म की थीं परन्तु आचार्य चाणक्य चाहते थे की मौर्य वंश के सिंघासन का अगला उतराधिकार बिन्दुसार और सुभाद्रंगी (धम्मा) की संतान हो| इसी घटना को कई इतिहासकारों ने अपने तरीके से अलग-अलग रूप से लिखा है परन्तु अशोक्वार्दंम जो की अशोक के जीवन के ऊपर लिखी हुई पुस्तक है उसमे हमें इस घटना की जानकरी मिलती हे| इस पुस्तक को स्वयम अशोक ने लिखा है|

  2-  अशोक ने क्यों अपने 98 भाईओं को मारा ?
अशोक ने अपने इतने भाइयों को क्यों मारा| हर इतिहासकार इसकी एक अलग घटना बताता है| उन घटनाओं में सच क्या है यह बता पाना थोडा कठिन है| पान्तु आप फ़िक्र न करें मैंने आपके लिए इस समस्या का समाधान निकल लिया है और इस विषय पर अनुसंधान किया है| उसका नतीजा अब आप को मैं बताऊंगा| यह घटना और यह तथ्य की अशोक ने अपने 98 भाईओं को मार दिया यह पूरी तरह से गलत है| अशोक ने आचार्य चाणक्य के कहने पर बस अपने एक भाई से युद्ध किया था और उसे भी अशोक ने नहीं मारा वो अपने आप एक खाई में गिर कर मृत्यु को प्राप्त हुआ था| इस युद्ध के बारे में में आगे चर्चा करूँगा| अभी हमारा यह जान लेना आवश्यक है कि कई एतिहासिक ग्रथों में ऐसा क्यों वर्णित है कि अशोक ने अपने 98 भाईओं को मृत्यु दी| इसका कारण है कि वो किताबें यूनानी इतिहासकारों या तो यूनानी इतिहासकारों के भारतीय सलहाकारों ने लिखी है| ऐसा लिखने का कारण यह है की यूनान और मौर्य राजवंशों के बीच हमेशा से ही तनाव पूर्ण सम्बन्ध रहे हैं| इसलिए मौर्य राजवंशो को नीचा दिखाने के लिए हिरोदोतुस, ठुच्य्दिदेस, क्सेनोफों जैसे प्राचीन इतिहासकारों ने अपनी-अपनी पुस्तकों मेँ ऐसा ही वर्णित किया है और इसी घटना को अधार बना के कुछ भारतीय इतिहासकारों ने, जो अशोक को एक कुशल शासक नहीं मानते, उन्होंने यह वर्णन किया है कि अशोक ने अपने 98 भाईओं को मारा है| परन्तु कुछ यूनानी इतिहासकार जैसे कर्तिय्स और इ. एन. डब्लू. बेज लिखते हैं कि उस समय के ग्रीस शासकों ने अपनी महानता सिद्ध करने के लिए कई देशों के कई सम्राटों के बारे में ऐसी बहुत सी गलत घटनाएँ वर्णित की हैं| उन सम्राटों में अशोक मौर्या का भी नाम हैतो हमे यह तो पता चल गया की अशोक ने अपने 98 भाईओं को नहीं मारा बल्कि उसके 98 भाई थे ही नहीं| मेरा यह ब्लॉग पढ़ने के बाद आप जरुर इन्टरनेट पे सर्च करेंगे कि क्या अशोक के वाकई इतने भाई थे और वहाँ आप को पता चलेगा की उसके 98 भाई थे जैसा की कई बौद्ध ग्रंथों में लिखा है| तो में आप को यह बता दूँ अशोक के बारे में आपको अगर कहीं भी कुछ ऐसा लिखा मिलता है जिसकी वास्तिविकता सिद्ध नहीं हो सकती तो आप यह जान लें की वो सारी चीजे यूनानी इतिहासकारों के प्रभाव में आके लिखी गयी थी | आईये अब जानते हैं कि अशोक का शुशिम से युद्ध का क्या कारण था| शुशिम सम्राट बिन्दुसार की प्रथम पत्नी शुसिमा का पुत्र था जिसे आचार्य चाणक्य मगध का सिंघासन नहीं देना चाहते थे| इसलिए उसकी शिक्षा एक आम राजकुमार के जैसी हुई, वैसी नहीं जैसी एक होने वाले राजा की होनी चाहिए थी| परन्तु शुसिमा चाहती थी की उसी का पुत्र राजसिंघसन पर विराजे जिसके लिए उन्होंने अपने पति की मृत्यु के पश्चात् अपने पुत्र शुशिम को अपने भाई के ऊपर आक्रमण के लिए कहा और राज्य के लालच में शुशिम ने अशोक के ऊपर आक्रमण कर दिया| इस युद्ध में शुशिम की खाई में गिर के मृत्यु हो गयी| तो मित्रों यह था हमारे दूसरे प्रशन का उत्तर की क्या अशोक ने अपने 98 भाईओं की हत्या की थी तो इसका उत्तर है नहीं|

  3-  कलिंग के युद्ध में एसा क्या हुआ की अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया ?
कलिंग के युद्ध का अभियान अशोक के दक्षिण विजय के अभियान का पहला चरण था| इस अभियान के 3 और चरण थे जो चोल, चेरा और पंड्या राजवंश के विरुद्ध थे और इन तीनो चरण में अशोक की हार हुई| उसकी जीत केवल कलिंग में हो सकी वो भी बहुत बड़ा बलिदान देके| अशोक की आत्म कथा अशोक्वार्दानाम के अनुसार 268 ई.पू. से 265ई. पू (तीन साल) तक चला युद्ध अशोक के जीवन का सबसे भयंकर युद्ध था, जिसमें अशोक को विजय तो मिली परन्तु दोनों पक्षों के 10 लाख से अधिक सैनिक मृत्यु को प्राप्त हुए थे जिसमें अशोक के भी विश्वासपात्र और निकट सम्बन्धी भी थे| अशोक ने इससे भी पूर्व युद्ध किये और जीते थे परन्तु ऐसा रक्तसंहार उसने कभी नहीं देखा था| इसलिए उसे युद्ध से नफरत हो गयी| वो इस युद्ध जीतने के बाद भी बेचैन और परेशान  था| ऐसे समय में उसके राज्य में कुछ बौद्ध अनुयीई आये थे| अशोक ने उनसे अपनी समस्या का समाधान माँगा| उन्होंने उन्हें भगवान बौद्ध की पूरी कथा सुनायी कि कैसे राजकुमार सिद्धार्थ गौतम भगवान गौतम बौद्ध बने| उनके जीवन की कठनाई और परिश्रम की कहांनी सुन के अशोक का उन्हें और जानने का मन किया और इसके लिए सम्राट अशोक ने पूर्ण रूप से राज काज का त्याग कर दिया और भगवान बौद्ध के मार्ग पे चलने लगा, यही नहीं और लोगों को इस मार्ग पर चलने हेतु उन्होंने अपने पूत्र कुनाल और महिंदा को और पुत्री संघ्मित्ता और चारुमती को विश्व भ्रमण पर इस उद्देश्य से भेज दिया कि वो और लोगों को इस मार्ग पे चलने के लिए प्रेरित कर सकें| तथा अपने सबसे छोटे पुत्र को तिवाला को राजा बना दिया यह तिवाला बाद में महाराज दशरथ मौर्या के नाम से जाना गया|

दोस्तों अशोक ने बौद्ध धर्म को तो इस विश्व में प्रचारित कर दिया परन्तु अपने पिता होने का धर्म न निभा सका| उसके बेटे तिवाला को कभी वो मार्गदर्शन नहीं मिल सका जो एक बच्चे को राजा के रूप में अपने गुरु या पिता से मिलना चाहिए था| क्योंकि इस समय तक आचार्य चाणक्य की भी मृत्यु हो गयी थी| अत: वो भी तिवाला को मार्ग दर्शन ना दे सके और इसलिए अशोक के बाद मौर्य वंश उतना समृद्ध नहीं रह पाया जितना कि वो पहले हुआ करता था| हिन्दू धर्म और जितने भी धर्म हिन्दू धर्म से उत्पन्न हैं वो सन्यासी का जीवन जीने की चाह रखने वाले व्यक्ति से यह सवाल अवशय करते हैं कि क्या आप को विश्वास है की आप की बाद आप का पुत्र या आपके परिवार का कोई भी सदस्य आपकी और आपके परिवार की पैत्रिक सम्पति को संभालने कि क्षमता रखता है? अशोक का यही विश्वास गलत था अपने छोटे पुत्र पर क्योंकि अशोक ने कभी भी उसे वो मार्गदर्शन नहीं दिया था जो एक होने वाले राजा को या किसी राजकुमार को मिलने चाहिए था|

तो दोस्तों यह थी अशोक के जीवन से जुड़ी वो अनसुनी बातें जो अगर आप को पता न थीं या फिर पुरी तरह से नहीं पता थीं| यह थी उस व्यक्ति से जुड़ी वो बातें जिसे हम जानते हुए भी अंजान थे, जिसके ऊपर अपने भाईयों की मृत्यु का आरोप था यह थी कहानी बौद्ध सम्राट अशोक की|

इस ब्लॉग को अधिक से अधिक शेयर करें ताकि और लोगों को भी अशोक के जीवन के अनसुने पहलुओं की जानकारी मिल सके|
                               ||जय महाकाल||
                                ||जय भारत||
 
21/06/2020
                                                    परम कुमार
                                                    कृष्णा पब्लिक स्कूल
                                                    रायपुर(छ.ग.)

ऊपर दी गयी जानकारी अशोक्वार्दानाम से लीगयी है
ऊपर दी गयी फोटो इस लिंक से ली गयी है-https://cdn.shopify.com/s/files/1/1284/2827/products/samrat_Poster_1024x1024.jpg?v=1498360702


Sunday 7 June 2020

जय महाकाल
नमस्कार दोस्तों !!!
 आप सब का एक बार फिर से मेरे ब्लॉग में स्वागत है| आज की हमारा चर्चा का विषय भारत के एक ऐसे महान योद्धा पर है जिसने समस्त भारतवर्ष पर अधिकार करने वाली ताकत तुगलक शाही को हराकर भी पूरे भारत पर अपना अधिकार नहीं जताया और सभी राज्यों को उनका राज्य वापस दे दिया| इस योद्धा ने पूरे भारत में भारत के वीरों का जोर-शोर फिर से बढ़ा दिया| अलाउद्दीन खिलजी और मोहम्मद गयासुद्दिन तुगलक जैसे वीरों को हराकर और उनके अत्याचारों का नामोनिशान मिटा कर विदेशी आक्रमणकारियों के अंदर अपना डर बैठाया और भारत की कीर्ति को एक नवीन स्थान पर पहुंचाया।
आप सोच रहे होंगे की भारत में तो ऐसे बहुत वीर हुए पर आपको कुछ ना कुछ तो यह समझ में आया ही होगा कि मैं जिन वीरों की बात कर रहा हूं वह अलाउद्दीन खिलजी से लेकर मोहम्मद गयासुद्दिन तुगलक के बीच के समय में रहे| अब आपके दिमाग में इस समय के भी वीरों के नाम आए होंगे परंतु आप  समझ नही पा रहे होंगे कि मैं किसकी बात कर रहा हूं| तो चलिए आपकी परेशानी को हल करते हुए मैं आपको बताता हूं मैं किस वीर की बात कर रहा हूं|
यूं तो भारत में बहुत से वीर हुए किसी को सम्राट बोला गया किसी को महाराज बोला गया किसी को राजा बोला गया किसी को शहंशाह तो किसी को बादशाह बोला गया| उपाधि जो भारत के वीरों में हमेशा याद रहती है वह उपाधि है महाराणा| अब आप लोगों के दिमाग में बहुत से नाम गए होंगे जैसे कि महाराणा प्रताप, महाराणा सांगा, महाराणा कुंभा, और इसी महान सूर्यवंश के कई वीर योद्धाओं के नाम आए होंगे| परंतु दोस्तों मैं आज आपको जिस वीर के बारे में बताने जा रहा हूं उसी को सबसे पहले महाराणा का खिताब मिला था, जो रावल से महाराणा बना और  चित्तौड़ में रावल से महाराणा बना और जिसने अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ को नष्ट करने के बाद चित्तौड़ में राजपूती झंडा पुनः लहरा कर पूरे भारत को बता दिया कि हिंदुस्तान हमेशा से वीरों की भूमि ही है और यहां पर वीरों की कमी कभी नहीं होगी|
 जी हां दोस्तों आप बिल्कुल सही समझे मैं बात कर रहा हूं चित्तौड़ और मेवाड़ कुल शिरोमणि वीर महाराणा हमीर सिंह की| आज के ब्लॉ में हम लोग जानेंगे कि किस प्रकार एक परिवार जो वर्षों से रावल का खिताब लगाता था वह किस प्रकार से महाराणा के ख़िताब  से नवाजा गया| आज मैं एक ओर हमीर सिंह के बारे में भी इस ब्लॉग में बताऊंगा बल्कि मैं कहूंगा कि मैं पहले आपको उसी हमीर सिंह के बारे में बताऊंगा जिसके बारे में इतिहास में यह लिखा जाता है कि वह अलाउद्दीन खिलजी के साथ वीरता पूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे|
 तो आइए दोस्तों नया ब्लॉग शुरू करते हैं
भारतीय इतिहास में दो हमीरसिंह हुए
 एक थे मेवाड़ नरेश महाराणा हमीर सिंह| और दूसरे थे रणथंबोर के राजा राव हमीर सिंह| इन दोनों में केवल इतना ही संबंध था कि राव हमीर सिंह रावल रतन सिंह के कार्यकाल में रणथंबोर के राजा थे| आइए जानते हैं किस प्रकार से हमीर सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के बीच युद्ध हुआ|
28 दिसंबर सन 1302 मैं अलाउद्दीन खिलजी ने दूसरी बार चित्तौड़ को जीतने का निर्णय लिया| इस घटना से प्रभावित होकर अलाउद्दीन खिलजी के एक सेनापति ने उससे कहा कि महाराज आप जैसे राजा को एक स्त्री के मोह में आके मेवाड़ जैसे प्रबल शत्रु के ऊपर आक्रमण करना शोभा नहीं देता| अपने सेनापति रजक खान की इस सलाह को अलाउद्दीन खिलजी ने अपना विरोध समझा और उसने उसके मौत का फरमान जारी करवा दिया| अगर उस समय हिंदुस्तान में या भारतवर्ष में कोई शक्ति थी जो उसकी प्राणों की रक्षा कर सकती थी तो वह थे मेवाड़ के नरेश रावल रतन सिंह| रावल रतन सिंह इस समय लगभग- लगभग 3600000 स्क्वायर किलोमीटर के भारत के क्षेत्रफल के राजा थे| इनके शासन में दिल्ली भी ती थी| जबकि बहुत सारी जगह से हमें यह मालूम होता है कि दिल्ली उस समय अलाउद्दीन के कब्जे में था| दोस्तों जॉन डायर की किताब के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी का राज दिल्ली पर रावल रतन सिंह की मृत्यु के बाद स्थापित हुआ था और इस समय तक वह अपना राज दिल्ली के पास के एक किले जिसको देवगिरी भी कहा जाता है वहाँ से करता था|
चित्तौड़ की तरफ बढ़ते हुए रजक खान के रास्ते में रणथंबोर पड़ा| जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है रणथंबोर के राजा राव हमीर सिंह थे जोकि मेवाड़ के रावल रतन सिंह के मंत्री भी थे| रज खान ने अपनी सारी व्यथा राव हमीर सिंह को बताई और उन्हें आगाह किया कि जल्दी ही अलाउद्दीन मेवाड़ पर आक्रमण करेगा और रजत खान ने अपने प्राणों की रक्षा हेतु राव हमीर सिंह जी से सहायता मांगी| राव हमीर सिंह ने उन्हें यह बोलते हुए कि राजपूत जब दोस्ती करते हैं तो सर कटवा देते हैं और दुश्मनी करते हैं तो सर काट देते हैं  उन्हें वचन दिया कि तुम्हारी रक्षा हम अवश्य करेंगे| पर शायद यह नियति को मंजूर ना था| रावल रतन सिंह के राज्य की सीमा में तत्कालीन अफगानिस्तान और पाकिस्तान भी आते थे| अफगानिस्तान के सरदार मोहम्मद उल्लाह खान ने अलाउद्दीन खिलजी के भड़काने पर विद्रोह कर दिया था इस विद्रोह को दबाने के लिए रावल रतन सिंह को अपनी सेना का एक बहुत बड़ा हिस्सा अफगानिस्तान की और भेजना पड़ा था जिसकी वजह से चित्तौड़ में केवल 25000 की सेना थी| पर यह तो बा की बात है| सबसे पहले अलाउद्दीन खिलजी के सामने जो चुनौती थी वह थी रणथंबोर का किला जिसकी रक्षा राव हमीर सिंह कर रहे थे| राव हमीर सिंह के पास अलाउद्दीन खिलजी का यह संदेश भेजा गया कि अगर आप रावल रतन सिंह के विरोधी मोहम्मद अलाउद्दीन खिलजी की सहायता करेंगे तो आपको मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया जाएगा| राव हमीर सिंह ने इस को अस्वीकार करते हुए वही बात दोहराई जो उन्होंने रज खान को सहायता के वचन देते समय दोहराई थी कि हम राजपूत जब दोस्ती करते हैं तो सर कटवा देते हैं और दुश्मनी करते हैं तो सर काट देते हैं”| इसका मतलब साफ था कि भयंकर युद्ध होने वाला था| 6 जनवरी 1303 को रणथंबोर का भयानक युद्ध हुआ  इस युद्ध में कोई भी जीवित रह का| राव हमीर सिंह भी अपने वचन की खातिर जक खान की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए|  इतिहास में वर्णित मिलता है कि केवल 4000 राजपूत योद्धाओं ने  70000 की  मुसलमानी सेना का सामना किया और उन्होंने  20000  विदेशियों को मार गिराया| इस युद्ध में बड़ी मुश्किल से रजक खान बच पाया और वह भागता हुआ चित्तौड़ पहुंचा और उसने उसने रावल रतन सिंह को यह संदेश सुनाया कि चित्तौड़ पर अलाउद्दीन का आक्रमण होने वाला है| अगर आप सब ने मेरा पद्मावत वाला ब्लॉक पड़ा है तो आपको मालूम ही होगा कि इस युद्ध में रावल रतन सिंह की हार हुई थी और इनके साथ इनके छह भाई वीरगति को प्राप्त हुए थे और हिंदुस्तान पर खिलजी ओं का शासन कायम हुआ था|
मेवाड़ भी अब स्वतंत्र राज्य ना रहा था| मेवाड़ का राज्य अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा के राजा जीजा को सौंप दिया था और उसको यह लगता था कि मेवाड़ का राजवंश समाप्त हो गया क्योंकि रावल रतन सिंह की कोई संतान नहीं थी पर यही उसकी गलतफहमी थी रावल रतन सिंह के बड़े भाई रावल हरि सिंह ज्योति चित्तौड़ के पास एक गांव सिरसोद के राजा थे| उनके यहां उनकी पत्नी उर्मिला से उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी पर दुर्भाग्य से उनकी माता और पिता दोनों ने ही चित्तौड़ में अपने प्राण गवा दिए थे| इसी वीर बालक का नाम था हमीर सिंह| यह वीर बालक आगे जाके तुगलक ओं से अपने मेवाड़ को पुनः मुक्त कराया  और मेवाड़ में पुनः गहलोत वंश की शाखा की नीव रखी| यह शिशोद गांव के थे इसलिए यह लोग अपने आप को शिशोदिया भी कहते थे|
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महाराणा हमीर सिंह के जन्म को लेके बहुत से किस्से कहनियाँ हैं| इनका जन्म चित्तोड़ के युद्ध के 6 महीने पहले हुआ हे| इनके पिता का रावल अरी सिंह था और माता का उर्मिला| परन्तु इन्हें दोनों का ही सुख ने मिल सका| पिता ने रावल रतन सिंह के साथ युद्ध में चित्तोड़ की रक्षा करते हुए प्राण दे दिए और माता ने महारानी पद्मिनी के साथ जौहर कर लिया| इस बच्चे का लालन पोषण इसके नाना हुकुम देव ने किया| बचपन से ही हमीर सिंह को उनके बलिदानी और वीर परिवार की गाथा सुनाई गयीं| कई जगह हमे लिखा मिलता हे की इनका जन्म सन 1314 ई. में हुआ था परन्तु यह तिथि गलत है क्यों की इस समय इनका जन्म नहीं बल्कि राज्य अभिषेक हुआ था| महाराणा हमीर सिंह ने मात्र 11 साल की अबोध आयु में मेवाड़ का एक बड़ा हिस्सा राजा जीजा से जीत लिया था पर अभी भी उनके सामने एक मुसीबत थी| चित्तोड़ जो की अभी भी उनके पास नहीं आया था| खिलजी भी इस बात से प्रभावित था पर वो अभी एक और युद्ध की स्थिति में नहीं था क्योंकि दक्षिण में कई हिन्दू राजाओं ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया था| इस लिए उस ने मेवाड़ के ऊपर ध्यान नहीं दिया| यही उसकी सब बड़ी गलती थी| चित्तोड़ का किला उस समय उसके दत्तक पुत्र शिहाबुद्दीन ओमार के पास था|जो की एक भगोड़ा वीर था| और सन 1315 ई. में वो पल आया जब हमीर सिंह ने चित्तोड़ के ऊपर चढ़ई का निर्णय लिया | वो यह जानते थे की चित्तोड़े के किले के ऊपर आक्रमण से उनके सैनिकों को बहुत क्षति होगी|
 इसलिए उन्होंने छापामार युद्ध का निर्णय लिया| 4 मार्च 1315 ई. को शिहाबुद्दीन ओमार शिकार पे गया था बस इसी मौके की तलाश में हमीर सिंह और उनके सैनिक थे| उन्होंने शिहाबुद्दीन ओमार को पकड़ लिया और उसकी प्राण की रक्षा के बदले में चित्तोड़ का किला माँगा| जिससे उन्हें बिना युद्ध के ही विजय मिल गयी| पर इससे भी वो संतुष्ट नहीं थे उन्होंने खिलजी से उसके पुत्र की रक्षा हेतु 5 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और 1000 हांथी मांगे जो की उसे देनी ही पड़ी| इसके पश्चात उसे तीन महीने जेल में रखकर हमीर सिंह ने उसे मुक्त कर दिया| अब यहाँ से शुरू होता हे भारत का एक और नया अध्याय| सन 1316 ई. के शुरुआत में खिलजी की भी मृत्यु हो गयी थी| उसके बेटे उतने लायक नहीं थे की पिता के साम्राज्य को संभल सकें| परन्तु मेवाड़ की भी समस्या कम नहीं थी| मेवाड़ को छोडके अधिकांश राजपूताने और भारत पर अभी भी खिलजी हुकूमत थी| उन्होंने इसके विरुद्ध एक युद्ध शुरू किया जो की चार साल तक चला जिसमे इन्होने बड़े-बड़े और महतवपूर्ण भारत के हस्से खिलजी वंश से जीत लिए| जीते गये प्रदेश कुछ इस प्रकार हें-
1.       राजपुताना( राजस्थान)
2.       अफगानिस्तान
3.       पाकिस्तान
4.       कश्मीर
5.       हिमाचल
6.       गुजरात
7.       मालवा
इतने प्रदेश जीतने के बाद इनके एक मंत्री ने सलाह दी “बाकि प्रदेशों को एक एक करके जीतने की बजाये अगर हम सीधे दिल्ली के ऊपर चढ़ई करें तो हमे पूरा भारत मिल जायेगा| हमीर सिंह को यह प्रस्ताव अच्छा लगा| उन्होंने एक युद्ध की तैयारी शुरू कर दी| उधर दिल्ली में भी खिलजी वंश समाप्त हो गया था और गयासुद्दिन तुगलक नया दिल्ली सम्राट था| और इस प्रकार सन 1322ई. में दिल्ली के सामने एक युद्ध हमीर सिंह के रूप में खड़ा था| गयासुद्दिन तुगलक हमीर सिंह की वीरता से परिचित नहीं था| उसने उनका उपहास बनाया पर उसे पता नहीं था यह 18-19 सल का लड़का वीरता में किसी शेर से कम ना था| युद्ध शुरू होने के पहले गयासुद्दिन तुगलक ने कहा बालक लौट जा में तुझे प्राण दान दे दूंगा| हमीर सिंह ने कहा जब राजपूत युद्ध पर जाता हे तो या तो अपना सर कटवा के वापस जाता हे यह फिर दुश्मन का सर काट के| एक और भीषण युद्ध हुआ जिसमे हम्मीर सिंह ने अपनी सूझ बुझ से मात्र 1 घंटे में अपने तीरंदाज सिपाहियों की मदद से गयासुद्दिन तुगलक को उसके हांथी से गिरवा दिया और गयासुद्दिन तुगलक को बंदी बना लिया|
अब हम्मीर सिंह का राज्य उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कत्तक तक, पश्चिम में अफगानिस्तान से पूर्व में अवनति तक था| परन्तु इन्हें इस राज्य का कोई मोह न था| उन्होंने यह सारे राज्य उनके असली राजाओं को वापस सोंप दिए| सन 1322 ई. से 1364 ई. तक बिना कोई युद्ध किए कुशल राज्य किया और अपने राज्य की प्रगति में धयान दिया| इसी बीच सन 1325 ई. में भारत के कई राजाओं ने इनसे विनती की की वो लोग इन्हें एक नए सम्मान से नवाजना चाहते हें और वो सम्मान था एक नई उपाधि महाराणा की जिसका अर्थ होता हे रण( युद्ध भूमि) का महाराज और इस प्रकार से हमीर सिंह बने मेवाड़ के पहले महाराणा और कहलाये महाराणा हम्मीर सिंह|
इस समय कई लोग कहेंगे कि गयासुद्दिन तुगलक या किसी और तुगलक का भारत पे राज था| तो यह इन विदेशी आक्रान्ताओं की पुरानी रित रही है कि वो अपनी हार को भी अपनी जीत बता देते है| जॉन दायर ने भी अपनी किताब लिखा है कि तुगलकों ने कभी भी राजपूताने और विजयनगर के ऊपर आक्रमण नहीं किया क्योंकि यहाँ पे उनकी हार हुई थी|
पर मुझे बड़ा तरस आता हे मेरे महान देश के इन अनसुने महान वीरों के ऊपर जिन्होंने भारत की प्रगति के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया और आज उसी देश के लोग उन्हें भूल गये| भारत में एक ओर खिलजी और तुगलकों जैसे विदेशियों के ऊपर खिलजी मार्ग और तुगलकाबाद जैसी जगहों  के नाम हैं वहीं भारत के अनगिनत वीर राजाओं और योद्धाओं को लोग जानते तक नहीं| इनके बारे में पढ़ाया भी नहीं जाता है| अतः मेरी आप सब से इतनी ही विनती है कि इस ब्लॉग को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ताकि लोग इन अनसुने वीरों के बारे में भी जान सकें|

07\06\2020
                                                          परम कुमार
                                                        कृष्णा पब्लिक स्कूल
                                                          रायपुर (छ.ग.)

ऊपर दी गयी इमेज इस लिंक से ली गयी हे-
https://www.google.com/url?sa=i&url=https%3A%2F%2Fjivanihindi.com%2Frana-hammir-ki-jivani%2F&psig=AOvVaw3K2knooXXtddlKHif9My-n&ust=1591608849925000&source=images&cd=vfe&ved=0CAIQjRxqFwoTCLjehZaz7-kCFQAAAAAdAAAAABAE


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